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२६२ अमरदीप आनन्द पाता है, मगरमच्छरों से रहित श्रेष्ठ तीर्थ विकसित पद्मिनियों के समूह से शोभा पाता है, इसी प्रकार नानाविध भावों और गुणों से उदित जिनेश्वर का मत (सिद्धान्त) सुरम्य है। इच्छित रसायन की भांति जिनेश्वरों का यह दर्शन (सुतीर्थ) किसे प्रिय नहीं होगा.? ।।२७।।
जैसे स्नान न किये हुए व्यक्ति के लिए सरोवर रम्य होता है, रोगपीड़ित के लिए रोगहारक (वैद्य) का घर (औषधालय) प्रिय होता है, क्षुधातुर (भूखे) आदमी को आहार प्रिय होता है, युद्ध में मूढ़ आकुल व्यक्ति सुरक्षित स्थान पसन्द करता है, शीत से पीड़ित व्यक्ति को अग्नि प्रिय लगती है, वायु के प्रकोप से पीड़ित व्यक्ति निर्वात स्थान चाहता है। भयोद्विग्न व्यक्ति सुरक्षा चाहता है और कर्जदार व्यक्ति धनप्राप्ति चाहता है। इसी प्रकार जन्म और मृत्यु की परम्परा से पीड़ित व्यक्ति को वीतराग का शासन प्रिय . होता है ॥२८-२६॥
जिस प्रकार तृषार्त (प्यास से व्याकुल) व्यक्ति को पानी मिलने से वह आनन्दित होता है, उसी प्रकार गम्भीर, सर्वतोभद्र, हेतु, भंग और नय से उज्ज्वल जिनेन्द्रदेव के वचनों की शरण में आने वाला मनुष्य आनंद पाता है ॥३०॥
जैसे शरद ऋतु में जल शुद्ध होता है, पूर्ण चन्द्रमण्डल रमणीय प्रतीत होता है, प्रकाश करती हुई उच्चजाति की मणि और विशाल भूतल स्थिर होता है, इसी प्रकार स्वाभाविक गुणों से युक्त जिनशासन भी उसी प्रकार सुशोभित होता है, जिस प्रकार चन्द्र तारागण से व्याप्त शारदीय गगनांगण सुशोभित होता है ।।३१-३२॥
जिसने सर्वज्ञ का शासन पाया है, उस आत्मा का विज्ञान वैसा ही विकसित होता है, जैसे कि हिमालय में वृक्ष का सौन्दर्य विकसित हो जाता है। जिस प्रकार तेजपूर्ण औषधि से बल और वीर्य की वृद्धि होती है, इसी प्रकार जिनेन्द्रदेव के शासन से सत्त्व, बुद्धि, मति, मेधा और गम्भीरता की वृद्धि होती है ॥३३-३४।।
संसाररूपी अरण्य में प्रचण्ड राजा का, गुरु का और आरोग्यकारक वैद्य की आज्ञा का पालन न करना दुःख का कारण है। राजाओं का शासन, (संसाररूपी) वन के मार्गदर्शक गुरु का उपदेश और वैद्य से रोग का उपचार यह सब हितप्रद होता है, (उसी प्रकार सर्वज्ञ का शासन भी सर्वहितकर होता है ।) ॥३५-३६॥