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अन्तई ष्टि साधक की वृत्ति-प्रवृत्ति २८५ *पावं परस्स कुवती, हसते मोह-मोहितो । मच्छो गलं गसंतो वा, विणिघायं ण पस्सति ॥४॥ पच्चुप्पण्णरसे गिद्धो, मोह-मल्ल-पणोल्लितो । दित्तं पावति उक्कंठं, वारिमज्झे व वारणो ॥५॥ परोवघात-तल्लिच्छो,
दप्प-मोह-बलुद्ध रो।। सीहो जरो दुपाणे वा, गुणदोसं न विदति ॥६॥ मवसो पावं पुरा किच्चा, दुक्खं वेदेति दुम्मती । आसत्त कंठपासो वा, मुक्कधारो दुहट्टिओ ॥७॥ पावं जे उपकुवंति, जीवा सोताणुगामिणो । घड्ढते पावकं तेसि, अणगाहिस्स वा अणं ॥८॥ अणुबद्धमप्पसंता,
पच्चप्पण-गवेसका। ते पच्छा तुक्खमच्छंति, गलुच्छित्ता जहा असा ॥६॥ आताकडाण कम्माणं, आता भुजति तं फलं । तम्ही आतस्स अट्ठाए, पावमादाय वज्जए ॥१०॥ जं हंता जं विवज्जेति, जं विसं वा ण भुजति । जं णं गेण्हति वा वालं, गुणमत्थि ततो भयं ॥११॥ धावंतं सरसं नीरं, सच्छं वाढि सिंगिणं । दोसभीरू विवज्जेंति, पावमेव विवज्जए ।।१२।। पावकम्मोदयं पप्प, दुक्खतो दुक्ख भायणं ।
दोसादोसोदथी चेव, पावकज्जा पसूयति ॥१३॥
अर्थात्- यहाँ मनुष्यों की आयु अल्प है और नरक में (पापकर्मों के फलस्वरूप) सुदीर्घकाल तक निवास होता है । सभी कामभोग (कामना-वासना) (अनन्त दुःखयुक्त) नरकों के मूल हैं । फिर कौन बुद्धिमान् (नरक दुःखमूल) कामभोगों में आनन्द मानेगा ॥१॥
निष्कर्ष यह है कि मानव की कामभोगजनित क्षणिक सुखानुभूति अपने पीछे नरकों की सागरोपम लम्बी दुःख-परम्परा लिये रहती है । सभी कामनाओं का पर्यवसान नरक में होता है।
साधक पाप न करे, न ही प्राणियों की हिंसा करे। विषयों में कदापि
१. गाथा संख्या ४ से १० तक प्रथम भाग के पृष्ठ २१०-२१२ पर अध्याय १८
में गाथा संख्या ११ से १६ के रूप में आ चुकी है।