Book Title: Amardeep Part 02
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 312
________________ २८६ अमरदीप रमण ( आसक्ति ) न करे । विषयविरक्त साधक उच्च-नीच शयनासनों में सुखी - दुःखी न हो । जैसे - जाल में से हवा पार हो जाती है, इसी तरह साधक को आसक्ति से पार हो जाना चाहिए ||२|| मनुष्य के मन में निहित लोभ और मोह पोप एवं हिंसा के प्रेरक तत्त्व हैं, साधक को पाप और हिसा से; तथा आसक्ति से दूर रहना चाहिए । विषयों से विरक्ति ही आत्मनिष्ठ सुख का कारण है । C जो व्यक्ति ( पुरुष ) पाप करता है, निश्चय ही उसे आत्मा प्रिर्य नहीं है, क्योंकि स्वकृत कर्म ( अशुभकर्म ) को आत्मा स्वयं ही भोगता है || ३ || मोहित आत्मा दूसरे ( की हानि ) के लिए हँस-हँस कर पाप करता है, वह उसके दुखद परिणाम को नहीं देखता, जैसे मछली आटे की गोली को गले में उतारती हुई खुश होती है, मगर उसके पीछे छिपी हुई अपनी मौत को नहीं देखती ॥४॥ मोहमल्ल से प्रेरित आत्मा वर्तमान विषय सुख के रस में मृद्ध हो जाता है । ( वह भविष्य में होने वाले कटु- परिणामों से आँखें मूँद लेता है ।) जिस प्रकार हाथी पानी में रहकर मदोन्मत्त हो जाता है, उसी प्रकार मोह के कीचड़ में फँसकर आत्मा अधिक मोहान्ध हो जाता है ||५|| दर्परूपी मोहमल्ल से उद्धत बना हुआ व्यक्ति दूसरे के घात में आनन्द मानता है । जैसे वृद्धसिंह उन्मत्त होकर विवेक खो बैठता है और निर्बल प्राणियों की हिंसा करता है, इसी प्रकार मोहोन्मत्त मानव गुण-दोष का विवेक भूल जाता है (अहं को चोट लगते ही वह निर्बल पर टूट पड़ता है | ) ||६|| आत्मा स्ववश होकर पाप करता है । वह दुर्बुद्धि पूर्वकृत पाप के कारण दुःख का अनुभव करता है । पाप में आकण्ठ डूबा ( आसक्त ) हुआ व्यक्ति अनेक कष्टों और विपत्तियों की धारा में अपने आपको (खुला) छोड़ देता है ||७|| जो ( वैषयिक) सुखाभिलाषी जीव के सुख के लिए पाप करते हैं, उन सुखार्थी आत्माओं का पाप उसी तरह बढ़ता जाता है, जिस प्रकार ऋण लेने वाले पर (प्रतिदिन) ऋण बढ़ता जाता है ||८|| जो केवल वर्तमान सुख को ही खोजते हैं, को नहीं देखते । वे जीव बाद में उसी प्रकार दुःख बी हुई मछली ॥ ॥ किन्तु उससे अनुबद्ध फल पाते हैं जिस प्रकार गला वर्तमान सुख पर जिनकी दृष्टि है, वे उस सुख के साथ बँधी हुई

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