Book Title: Amardeep Part 02
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 310
________________ ४८ अन्तर्दृष्टि साधक की वृत्ति प्रवृत्ति धर्मप्रेमी श्रोताजनो ! इस संसार में दो प्रकार की दृष्टि वाले मानव होते हैं - एक अन्तदृष्टि वाले और दूसरे बहिर्दृष्टि वाले । अन्तर्दृष्टि वाला साधक आत्मिक सुख की परिधि को मानकर चलता है, जबकि बहिर्दृष्टि मानव बाह्य- इन्द्रियजन्य सुख को प्रमुख मानकर चलता है । अन्तर्द्रष्टा साधक प्राणिमात्र के प्रति आत्मवत् भाव को लेकर चलता है । उसके अन्तर् में प्राणिमात्र के प्रति करुणा का निर्झर बहता है । वह आत्मा से बहिर्भाव - परभाव से पापादि प्रवृत्ति से तथा विभावादि विकारों से दूर रहता है । विषयों में आसक्त तथा कषायों में रत नहीं होता । यह ऋषिभाषित का अन्तिम प्रवचन है । यह इस ग्रन्थ का ४५वां अध्ययन है । इसके प्रवक्ता हैं - वंश्रमण अर्हतषि । इसमें अन्तर्दृष्टि वाले साधक की वृत्ति प्रवृत्ति की झांकी दी गई है । मैं इन गाथाओं पर अधिक विवेचन न करके गाथाओं का भावार्थ मात्र ही आपके समक्ष प्रस्तुत करूँगा । पापकर्म का निषेध : क्यों और कैसे ? इस अध्ययन में सर्वप्रथम अन्तर्दृष्टि सम्पन्न साधक को पापों से दूर रहने का युक्तिपूर्वक निर्देश किया है । वह इस प्रकार है अपं च आउ इह माणवाणं सुचिरं च कालं णरएसु वासो । सव्वे यकामा णिरयाण मूलं, को णाम कामेसु बुहो रमेज्जा || १ || पाव ण कुज्जा, ण हणेज्ज पाणे, अतीरसेणेव रमे कदायी । उच्चाव एहि सयणासहि, वायुव्व जालं समतिक्कमेज्जा ||२|| जे पुमं कुरुते पावं ण तस्सsप्पा धुवं पिओ । अप्पणा हि कडं कम्मं, अपणा चेव भुज्जती ॥३॥

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