Book Title: Amardeep Part 02
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 294
________________ २६८ अमरदीप फँसकर केवल मांस को देखती है, उसके पीछे छिपे काँटे को नहीं देखती । फलतः वह अपना कंठ छिदवा लेती है। इसी प्रकार वर्तमान सुखाभिलाषी अदूरदर्शी मानव भी तात्कालिक लाभ के पीछे बहुत बड़ी हानि को निमन्त्रण दे देता है । वे भावी परिणाम की ओर दृष्टि नहीं डालते, केवल वर्तमान सुखापेक्षी होते हैं । अपनी खुराक के लोभ में दौड़ने वाली मछली पानी से बाहर आकर समुद्र तटवर्ती कंकास घास में फंस जाती है और तड़फ तड़फ कर मर जाती है । इसी प्रकार मोह से उद्व ेलित आत्मा वर्तमान विषय-सुख के रस में आसक्त होकर दुःखी होता हैं । # वर्तमान भोगों की आसक्ति में फंसा हुआ मानव सचमुच दयनीय है । वह अपनी स्वतंत्रता को उसी प्रकार खो बैठता है, जिस प्रकार कीचड़ से सने पानी में फंसा हुआ हाथी अपनी स्वतंत्रता खो बैठता है । वह अपनी शक्ति के मद में आकर पानी में आगे से आगे बढ़ता हुआ दलदल में फंस जाता है । उसे किनारा दिखता है, लेकिन वहाँ तक पहुँच नहीं सकता । इसी प्रकार भोगों के दलदल में फँसा हुआ व्यक्ति अधिकाधिक मद करता है, उसकी दृष्टि केवल सरस स्वादिष्ट आधार पर ही होती है । वह अविवेकपूर्वक अनाप-शनाप आहार पेट में ठूस तो लेता है, लेकिन भोजन के साथ विवेक भूल जाता है, इसी प्रकार ऋद्धि-रस साता - गौरव के मद में छका हुआ साधक भी आहार का विवेक भूल जाता है । फलतः भोगों के बीच में फँसकर वह अपनी संयम साधना को चौपट कर देता है। भोजन का, भोगों का या कार्याकार्य का विवेक उसे नहीं रहता । इस प्रकार का साधक भी उस हाथी की तरह भोगों के भंवरजाल में फंसकर योग-साधना से भ्रष्ट हो जाता है । जिस प्रकार घी को पाने की आशा से घी के घड़े में कूदने वाली मक्खी के भाग्य में मौत का वारंट है, इसी प्रकार जो मधुबिन्दु की आशा से वृक्ष की अधकटी शाखा पर बैठा है । वह मधुबिन्दु को देखता है, किन्तु state ही नीचे अंधकूप में अपने गिरने को नहीं देखता । यही वर्तमान सुख को देखने वाले की विडम्बना है । अज्ञानी आत्मा की मूढ़ क्रीड़ाएँ अब अर्हतषि अज्ञानी की मोहमोहित बनकर की जाने वाली निन्दनीय क्रीड़ाओं का वर्णन करते हैं-

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