Book Title: Amardeep Part 02
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 306
________________ ४६ श्रेष्ठ मानव का लक्षण सुज्ञ धर्मप्रेमीजनो ! मैं आपसे एक प्रश्न पूछ लूँ कि आप मानवों में श्रेष्ठ मानव बनना चाहते हैं, अथवा निकृष्ट ? आप सभी बनना तो श्रेष्ठ ही चाहते हैं, परन्तु क्या आप जानते हैं कि श्रेष्ठ मानव कौन हो सकता है ? शायद आप नहीं बता सकते हों, तो अर्हतषि यम ने तेतालीसवें अध्ययन में यही बताया है लाभमि जेण सुमणो, अलाभे व दुम्मणो । से हु सेट्ठे मणुस्साणं, देवाणं व सयक्कऊ ॥ १ ॥ जमेण अरहता इसिणा बुझतं । इसका भावार्थ यह है कि 'जो मनुष्य लाभ में ( प्राप्ति होने पर ) सुमन (हर्षित) नहीं होता और अलाभ में ( अप्राप्ति में ) दुर्मन ( अप्रसन्न - खिन्न ) नहीं होता, वही व्यक्ति मनुष्यों में वैसा ही श्रेष्ठ है, जंसा कि देवों में शतक्रतु (देवेन्द्र ) है; ऐसा यम नामक अर्हतषि वोले । जन साधारण की मनोभूमि कुछ इसी ढंग की होती है, कि वह सजीव-निर्जीव अभीष्ट मनोज्ञ पदार्थ की प्राप्ति होने पर हर्षावेश में आजाता है, जबकि अभीष्ट पदार्थ का वियोग या अभाव होने पर मन में खिन्नता, उद्वेग, अप्रसन्नता आदि होती है । अतः साधक की मनःस्थिति देखते हुए भगवान् महावीर ने अपनी अन्तिम देशना में कहा था लाभालाभे, सुहे - दुहे, जीविए-मरणेण य । समो जिंदा - पसंसासु तहा माणावमाणओ ॥

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