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२६६ अमरदीप उनकी क्रियाएँ भी अनार्यवत् होती हैं। उन साधकों का स्वभाव स्वार्थी (ममत्वशील) और कपटी (शठ) हो जाता है ॥२॥
साधक की तपःसाधना कर्मक्षय के लिए होती है, किन्तु कर्मक्षय के बजाय जब वह उस तपःसाधना को प्रदर्शन, आडम्बर, प्रसिद्धि, कामना एवं आजीविका का साधन बना देता है, तब आत्मशुद्धि के बजाय आत्मा को यशप्रतिष्ठा की कामना या भौतिक चाह की कालिमा से कलुषित कर देता है।
___ इस रूप में साधक अपनी तप की शक्ति का प्रदर्शन करके उस शक्ति को मिट्टी के मोल बेच देता है। . इसी प्रकार जो साधक किसी भी फलाकांक्षा को लेकर रत्नत्रय आदि की साधना करता है, वह अपनी साधना को कंकर बना देता है। यह सरासर सौदेबाजी है। गृहिणी दिन भर घर का कार्य करती है, किन्तु बदले में . वह कभी अपने श्रम का मूल्य नहीं चाहती, जबकि एक मजदूरनी आठ घंटे तक काम करके पारिश्रमिक माँगती है। फलतः एक गृह-स्वामिनी बनती है, जबकि दूसरी केवल गृहदासी कहलवाकर मजदूरी के बारह रुपये लेकर चली जाती है । इसी प्रकार जो साधक अपनी साधना के बदले में कुछ नहीं चाहता, वह अपनी आत्मा का स्वामी बनता है; किन्तु जो साधक साधना का कुछ फल चाहता है, वह अपनी इच्छा का दास बनकर अपनी साधना को सस्ते भावों में बेच देता है।
पूणिया श्रावक के विषय में प्रसिद्ध है कि उसकी सामायिक साधना की प्रशंसा सुनकर मगधनरेश श्रेणिक उसकी सामायिक-साधना को खरीदने के लिए आया था। परन्तु पूणिया श्रावक ने इस अमूल्य साधना को किसी भाव में भी नहीं बेची । अतः साधक अपनी साधना के बीच में फलासक्ति को न आने दे, अन्यथा फल पाने की धुन में वह पथभ्रष्ट हो जायगा। फलासक्ति देवलोक और मनुष्यलोक क्या, मोक्ष की भी नहीं होनी चाहिए। कोई भी साधना हो, वह किसी भी फलाकांक्षा या फलासक्ति से रहित होनी चाहिए। उसमें इहलोक में धन, यश, पुत्र, स्वास्थ्य, बल, मकान या अन्य किसी भी वस्तु की कामना भी नहीं होनी चाहिए। न ही अगले जन्म में किसी भी प्रकार की भोगाकांक्षा या सुखाकांक्षा ही होनी चाहिए। गीता में बताया गया है
__कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन। तेरा कर्म (कार्य) करने में अधिकार है, फल की ओर आँख उठाकर न देखो । फलासक्त व्यक्ति के जीवन की मस्ती छिन जाती है। वह लोभवृत्ति में पड़कर रात-दिन उसी में रचा-पचा रहता है। उसकी साधना मानो