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साधना को जीविका का साधन मत बनाओ! २६६ आमीसत्थी झसो चेव, मांगते अप्पणा गलं । आमीसत्थी चरित्त तु, जीवे हिंसति दुम्मती ॥७॥ अणग्धेयं मणि मोत्तु, सुत्तमत्ताभिनंरती।
सवण्णु-सासणं मोत्तु, मोहादीएहिं हिंसती ॥८॥ अर्थात्- जिस प्रकार मांसार्थी मत्स्य अपना आहार (मांस का टुकड़ा) खोजता है । इसी प्रकार दुर्बुद्धि मानव भी आमिषार्थी के चरित्र की तरह अपना शिकार खोजकर प्राणिहिंसा करता है ।।७।।
जिस प्रकार अल्पबुद्धि वाला मामव कीमती रत्न को फेंककर केवल सूत के धागे के साथ खेलने लगता है, उसी प्रकार अज्ञानी व्यक्ति भी सर्वज्ञ का शासन छोड़कर मोहग्रस्त पुरुषों के साथ हिंसा (पाप) का आचरण करता है ॥८॥
आशय यह है कि मांसार्थी केवल मांस के टुकड़े को देखता है, किन्तु उसके पीछे लगे कांटे को नहीं देखता। इसी प्रकार हिंसाप्रिय मानव भी मत्स्य के जीवन का अनुकरण करता हुआ प्राणिवध की ओर प्रेरित होता है। वह आरम्भ (हिंसा) के मिठास को देखता है, किन्तु उसके दारुण विपाक को नहीं देखता।
यदि बंदर को हार दे दिया जाए तो तो वह मूर्ख बंदर उस हार में थी हुई अमूल्य मणियों को फेंक देता है और केवल सूत (धागे) से खेलता है। यही कहानी मोहमोहित साधकों की है, जो मणिवत अमूल्य सर्वज्ञ वीतराग के शासन को छोड़कर मोह-मोहित व्यक्तियों के साथ क्रीड़ा करते हैं । ऐसा साधक आत्मसाधना को भूलकर संसार-साधना में लग जाता है। उसकी क्रिया उस बालक की सी है, जो मिठाई के प्रलोभन में अपना बहुमूल्य आभूषण दे देता है । भोगों की तुच्छ लिप्सा में आत्मा के निजस्वभाव का त्याग करने वाला साधक उससे अधिक बुद्धिमान नहीं है।
तप आदि को आजीविका के साधन बनाने वाले साधक अब अर्हतषि इन्द्रनाग तप आदि विविध साधनाओं को आजीविका के साधन बनाने वाले साधकों के अशुद्ध जीवन का वर्णन करते हुए कहते हैं
सोअमत्तेण विसं गेझं, जाणं तत्थेव जुजती । आजीवत्थं तवो मोत्तु, तप्पते विविहं बहु ॥६॥ तव-णिस्साए जीवंतो, तवाजीवं तु जीवती । णाणमेवोवजीवंतो, चरित्तं करणं तहा ॥१०॥