Book Title: Amardeep Part 02
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 293
________________ साधना को जीविका का साधन मत बनाओ ! २६७ बिक जाती है । फल पाने की धुन में साधक कभी-कभी साधनशुद्धि का विवेक भी भूल जाता है। तात्कालिक लाभ : बहुत बड़ी हानि अब अर्हतर्षि इन्द्रनाग वर्तमान सुख में मोहित साधकों को चेतावनी के स्वर में कहते हैं गलुच्छिन्ना असोते वा, मच्छा पावंति वेयणं । अणागतमपस्संता, पच्छा सोयंति दुम्मती ॥३॥ मच्छा व झीणपाणिया, कंकाणं घासमागता । पच्चुप्पण्णरसे गिद्धो, मोहमल्लपणोल्लिया ॥४॥ दित्तं पावति उक्कठं,' वारिमज्ञ व वारणा । आहारमेत्त-संबद्धा, कज्जाकज्ज-णिमिल्लिता ॥५॥ मक्खिणो धतकुम्भे वा, अवसा पावंति संखयं । मधु पावेति दुर्बुद्धी, पवातं से ण पस्सति ॥६॥ . अर्थात्-अस्रोत (निर्जलस्थल) में कंठ छिदा हआ मत्स्य जैसे वेदना पाता है, इसी प्रकार भविष्य (अनागत) को न देखने वाला दुर्मति साधक बाद में पश्चात्ताप करता है ।।३॥ जैसे मत्स्य पानी से रहित होकर कंकास के घास में फँस जाता है, इसी प्रकार मोहरूप मल्ल से प्रेरित प्राणी केवल वर्तमान सुख के आस्वादन में गृद्ध हो जाता है ॥४॥ जैसे पानी में रहा हुआ हाथी मदोन्मत्त बनता है और वहीं अविवेक से आसक्त होकर दैन्य को प्राप्त होता है, अपनी स्वतन्त्रता खो बैठता है। इसी प्रकार सरस स्वादिष्ट आहार पर ही जिसकी दृष्टि है, ऐसा साधक कार्यअकार्य के विवेक से आँखें मूद लेता है ॥५॥ ___ जैसे घी के घड़े में पड़ी हुई मक्खी विवश होकर विनाश को प्राप्त होती है, इसी प्रकार शहद के लिए वृक्षाग्र पर स्थित दुर्बुद्धि जीव सोचता है कि मैं मधु प्राप्त करूंगा, किन्तु वह यह नहीं देखता कि मैं नीचे (गहरे 'ए में) गिर जाऊँगा ॥६॥ अर्हतर्षि इन चार गाथाओं में उन प्राणियों की मनोवत्ति का चित्रण करते हैं, जो केवल वर्तमान सुख को ही देखते हैं, भविष्य में भयंकर दुखद परिणाम को नहीं देखते । यह भी एक प्रकार से फलासक्त मानव का जीवन है, जो केवल वर्तमान सुख को देखने वाली मछली जैसा है। मछली मांस की आशा से जलस्रोत से बाहर आ जाती है; अथवा मांस के प्रलोभन में

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