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इच्छाओं के इन्द्रजाल से बचें ! २६१
अर्थात् -- दीवायन अर्ह तर्षि बोले - ( हे साधक ! ) पहले इच्छा को अनिच्छा के रूप में बदल दो ।
'लोक में अनेक प्रकार की इच्छाएं हैं, जिनसे बंधकर आत्मा संक्लेश पाता है । अतएव साधक इच्छा को अनिच्छा से जीत कर ही सुख पा सकता है।'
दस प्रकार की मुख्य इच्छाएँ
वैसे तो शास्त्र में कहा गया है - 'इच्छा हु आगाससमा अनंतया' इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं । अर्थात् — उनका कोई अन्त नहीं आता । परन्तु स्थानांगसूत्र में दस प्रकार की आशंसाएँ - इच्छाएँ कही हैं(१) इहलोक की इच्छा करना, यथा- ' तप आदि के प्रभाव से मैं चक्रवर्ती बनू ।'
(२) परलोक की इच्छा करना, यथा- 'मैं इन्द्रादि बनू
(३) उभयलोक की इच्छा करना, जैसे- 'इन्द्रादि देव बनकर चक्रवर्ती
"
आदि बनू
(४) जीने की इच्छा करना, यथा- 'मैं चिरकाल तक सुखपूर्वक जीवित रहूँ ।'
(५) मरने की इच्छा करना, यथा- 'मैं इतना दुःख पा रहा हूं, इससे तो मृत्यु आ जाए तो अच्छा ।'
(६) काम की इच्छा करना, यथा- 'मुझे अच्छे शब्द और रूप सुननेदेखने को मिलें ।'
(७) भोग की इच्छा करना, यथा- - मुझे अच्छे गंध-रस - स्पर्श की प्राप्ति हो ।'
(८) लाभ की इच्छा करना, यथा- 'मुझे धर्म के फलस्वरूप यश-कीर्ति, धन आदि का लाभ हो ।'
(६) पूजा की इच्छा करना, यथाप्रसिद्धि एवं प्रतिष्ठा दूर-दूर तक हो ।'
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- 'संसार में मैं पूजा जाऊँ, मेरी
(१०) सत्कार की इच्छा करना, जैसे- 'मेरा सर्वत्र सत्कार हो, जय-जयकार हो ।'
पुरा अर्थात् चारित्र ग्रहण से पूर्व उपर्युक्त प्रकार की जितनी भी इच्छाएँ साधक के मन में हों, उन्हें तिलांजलि दे दे, उनसे विरक्ति और अनिच्छा प्राप्त करे । वह आत्मसन्तोष में रमण करे । अथवा पुरा कानी शीघ्रदीक्षित हुआ मुनि इच्छा को अनिच्छा से जीते ।