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इच्छाओं के इन्द्रजाल से बचें !
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देवों आदि को कुछ भी नहीं गिना और महादेव की मूर्ति को तोड़कर उसके नीचे गड़े हुए धन को बटोर कर ले गया, परन्तु इस निकृष्ट इच्छापूर्ति का नतोजा इतना भयंकर हुआ कि वह सुख से न जी सका, सारा गजनी शहर धूल में मिल गया। उसके उत्तराधिकारी भी दुःखपूर्वक हाय-हाय करके मरे।
__ औरंगजेब ने अपनी राज्यलिप्सा के लिए दारा, शुजा और मुराद अपने तीनों भाइयों को बुरी तरह मरवा डाला । अपने पिता शाहजहाँ को कैद करके अनेक यातनाएँ देने लगा। किसी की भी सलाह न मानी। परन्तु इस प्रकार की निकृष्ट राज्येच्छा की पूर्ति का नतीजा दुःखदायक ही हुआ।
___ इच्छा के साथ धनहानि आदि कई प्रकार के दुःख लगे हुए हैं, उनका निरूपण करते हुए अर्हतर्षि कहते हैं---
इच्छामूलं णियच्छति, धणहाणि बंधणाणि य। '
. पिय-विप्पओगे य, बहूजम्माई मरणाणि य ॥३॥ ____इच्छा के मूल में धनहानि और बन्धन रहे हुए हैं। साथ ही प्रिय-वियोग तथा बहुत बार जन्म एवं मरण भी लगे हुए हैं।'
। कुछ लोगों ने भ्रान्तिवश सुख की व्याख्या की है-'इच्छापूर्तिजन्यं सुखम् ।'- मन में इच्छा उत्पन्न होते ही उसकी पूर्ति हो जाना सुख है। परन्तु इच्छापूर्ति सुख नहीं, सुखाभास है। इच्छा झटपट पूरी नहीं होती, उसमें कई बार तन, धन और प्राण स्वाहा हो जाते हैं, अपने प्रियजनों का वियोग भी हो जाता है। अनैतिक इच्छापूर्ति से सुख के बदले प्रायः दुःख, बन्धन और क्लेशों की विशाल परम्परा खड़ी मिलती है। रावण ने भी तो सुखप्राप्ति के लिए सीता का जबरन अपहरण करके लंका लाकर अपनी इच्छा पूर्ति का प्रयास किया था। पर उसे बदले में क्या मिला था-लंका का सर्वनाश, अपने कूटम्बीजनों का वियोग, क्लेशपूर्वक स्वयं की मृत्यु । जरासंध और कीचक को अपनी इच्छापूर्ति के प्रयत्न में क्या सुख मिला ? दुःख, क्लेश, घृणा और तिरस्कार ही तो पाया उन्होंने ! क्या ही अच्छा होता यदि वे अपनी बुरी इच्छाओं को उठने के साथ ही कुचल देते ! एक दृष्टि से पश्चिमी विचारक फ्रैंकलिन का यह सुझाव ठीक ही लगता है- बाद में उत्पन्न होने वाली सारी इच्छाओं की पूर्ति करने की अपेक्षा पहली इच्छा का दमन कर देना कहीं अधिक सरल और श्रेयस्कर है।'
अहंतर्षि दीवायन पुनः इच्छा के स्वभाव को प्रकट करते हुए साधकों को परामर्श देते हैं---