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पापकर्म से विरक्ति २५५
कई व्यक्ति, जिन्हें पापकर्म के प्रति घृणा, अरुचि या विरक्ति नहीं होती, ढीठ होकर पापकर्म करते जाते हैं, उनको कोई खटक, लज्जा या शंका नहीं होती । पाश्चात्य विचारक 'लिटन' के शब्दों में- 'ऐसे व्यक्ति को पाप पहले मजेदार लगता है, फिर आसान हो जाता है, फिर हर्षदायक, फिर बार-बार किया जाता है, फिर आदतन किया जाता है, उसकी जड़ जम जाती है, फिर आदमी गुस्ताख हो जाता है, फिर हठी, फिर वह कभी न पछताने का मकसद कर लेता है और फिर तबाह हो जाता है ।'
परन्तु लज्जाशोल और पाप-विरक्त साधक या सज्जन एक बार कहीं फिसल भी जाता है तो वह भूल सदा उसे कचोटती रहती है। वह फिर उस ओर कदम नहीं बढ़ाता । दशवेकालिक सूत्र (८ / २) में साधक के लिए कहा गया है
से जाणमजाणं वा कट्टु आहम्मियं पयं । संवरे खिप्पमप्पाणं, बीयं तं न समायरे ॥
'विवेकी साधक, यदि जाने-अनजाने कोई पापकर्म कर बैठे तो अपनी आत्मा को शीघ्र ही उससे रोक ले; और दुबारा फिर ऐसा न करे ।'
कदाचित अनिच्छापूर्वक किसी अनिष्ट प्रवृत्ति में भाग लेना पड़े तो उस समय अपनी ज्ञानचेतना खुली रखे, पाप को पाप माने और शीघ्र ही उससे अलग हट जाने का विचार रखे ।
पाप से मुक्त होने का उपाय
छद्मस्थ मनुष्य का गिरना स्वाभाविक है, परन्तु गिरकर वहीं पड़े रहना दुर्बलता है, गिरकर उठ खड़े होना बहादुरी है ।
पाश्चात्य विचारक ‘लोंगफैलो' के इन सूत्रों को याद रखकर पापों से मुक्त होने का प्रयत्न करो
"Manlike it is to fall into sin. Fraudlike it is to dwell therein. Christlike it is for sin to grieve. Godlike it is all sin to leave.'
'पाप में पड़ना मानव स्वभाव है, उसमें जुड़े रहना शैतान का स्वभाव है, पाप पर खेद करना सन्त स्वभाव है और सब पापों से मुक्त होना परमात्म-स्वभाव है ।