Book Title: Amardeep Part 02
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

Previous | Next

Page 280
________________ २५४ अमरदीप _ 'प्रच्छन्नं पापम्, प्रकटं पुण्यम्' जो भी छिपकर होता है, वह पाप है और जो प्रकट होता है, वह पुण्य है। मनुष्य सुरापान, व्यभिचार, स्वामिद्रोह. परस्त्रीगमन, चोरी, स्त्रीवध या बालवध आदि पाप प्रायः छिपकर करता है, किन्तु दान परोपकार धर्माचरण, दया आदि धर्म या पुण्य प्रकट में करता है। पापाचरण का कोई भी ढिंढोरा नहीं पीटता; बल्कि उसे छिपाता है, परन्तु पुण्यकर्म या धर्माचरण का प्रायः ढिंढोरा पीटता है। किन्तु एक बात निश्चित है, कि ज्यों-ज्यों मनुष्य पाप को छिपाता है, त्यों-त्यों उसके मन में अज्ञानान्धकार बढ़ता जाता है । शंख स्मृति में कहा है कृत्वा पापं न गूहेत, गूहमानं विवर्धते । पापकर्म करके उसे छिपाओ मत ! छिपाया हुआ पाप बढ़ता जाता जो व्यक्ति प्रकाशपथ प्राप्त कर चुका है, वह प्रज्ञाशील पुरुष. निष्पाप जीवन बिता कर पुण्यप्रभा से आलोकित होता है और विश्व में सूर्य की भांति प्रकाश की किरण देता है। कदाचित् पाप हो जाय तो पुनः उस पाप को न करे कदाचित् मोहवश साधक से पाप हो जाय तो क्या करना चाहिए ? इस विषय में अर्हतर्षि संजय मार्गदर्शन देते हैं- . सिया पावं सइं कुज्जा, ण तं कुज्जा पुणो पुणो । णाणि कम्मं च णं कुज्जा, साधुकम्मं वियाणिया ॥३॥ 'कदाचित् (मोहवश) एक बार पाप हो जाय; तब भी साधक उस पाप को पुन:पुनः न करे । ज्ञानी पुरुष श्रेष्ठ कार्यों को समझ कर सदैव उन्हीं को करने में रत रहे।' अर्हतर्षि इसी तथ्य का विश्लेषण करते हुए कहते हैं। उनके कथन का भावार्थ इस प्रकार है ___ 'कदाचित् पापकर्म हो जाय तो पुनः-पुनः उसका आचरण करके उसका समूह न बनाए, जिससे उस साधक को पुनः-पुनः जन्म ग्रहण करना पड़े। यदि गुप्तरूप से कोई पाप किया हो; तब भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से, कर्म (कियात्मक रूप) से तथा अध्यवसाय से सम्यक् प्रकार से (किसी योग्य गीतार्थ साधक के समक्ष) निष्कपट रूप से आलोचना करे।'

Loading...

Page Navigation
1 ... 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332