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पापकर्म से विरक्ति . .
धर्मप्रेमी श्रोताजनो.!
आस्तिक दर्शनों में पाप और पुण्य का कथन बार-बार आता है । वे मनुष्य के लिए पाप का निषेध और पुण्य का विधान करते हैं । परन्तु पाप क्या है ? व्याकरणशास्त्र की दृष्टि से पाप का अर्थ होता है
_ 'पातयत्यधः नरकादिष आत्मानमिति पापम्' जो आत्मा को नीचे गिराये, अधःपतन करे वह पाप है।
कुछ लोग कहते हैं-मनुष्य जानबूझकर पाप नहीं करता वह परिस्थिति से प्रेरित होकर जो कार्य करता है, दुनिया उसे पाप की संज्ञा दे देती है। परन्तु तर्क की कसौटी पर कसने पर यह ठीक नहीं उतरता । एक शराबी या मांसाहारी भी यह कह सकता है, मैं भी परिस्थितिवश शराब पीता हूं। मांसाहार भी परिस्थितिवश करना पड़ता है। परन्तु मनुष्य क्या परिस्थितियों का गुलाम बनकर आया है ? नहीं, परिस्थतियों पर विजय प्राप्त करने में ही पुरुष का पौरुष है। वह परिस्थतियों का दास नहीं, उनका निर्माता-विधाता है।
मनुष्य जब अपने शुभ संकल्प से विचलित हो जाता है, तभी उसे अशुभधारा अपने प्रवाह में बहा ले जाती है, वही पाप है। अगर मनुष्य उसी समय दृढ़तापूर्वक अशुभ की ओर जाने वाले मन को रोक दे, पाप के लिए साफ इन्कार कर दे तो कोई कारण नहीं कि पाप उसे घसीट ले जाये । मानव पाप से अपने आप को बचाता है। तो वह इन्कार उसे हजार आपत्तियों से बचाता है। इसलिए मनुष्य में 'हाँ' की जगह 'ना' कहने की हिम्मत होनी चाहिए । बालक की तरह निष्पाप रहे तो वह पाप के स्थान पर भी पुण्यशील रह सकता है । प्रस्तुत उनचालीसवें अध्ययन में अर्हतषि संजय पाप से विरक्ति का उपदेश देते हुए कहते हैं
जे इमं पावकं कम्म, व कुज्जा ण कारवे । देवा वि तं णमंसंति, धितिमं दित्ततेजसं ॥१॥