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२५० अमरदीप चाहिए और उसकी अर्थपरम्परा को देखकर लोभी व्यक्ति से दूर रहना ही श्रेष्ठ है ।।२६।।
दम्भपूर्ण आचरण अवश्य ही सिंह के चमड़े से आवृत गीदड़ के समान समझना चाहिए। सम्पूर्ण रूप से असत्याचार सेवन करने वाला उपचार से परखा जाता है ॥२७॥
मनुष्य का स्वभाव बहुत दुर्बल होता है। वह अनेक वर्ण (रूप) का आभास देता है । पुष्प लेने के लिए सुनन्दा प्लवकार (नाव बनाने वाले) के घर गई ॥२८॥
द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा सभी भावों और सभी लिंगों के द्वारा जीवों की भावना को सब तरह से समझना चाहिए ॥२६॥
यहाँ अर्हतषि साधक को अपनी साधना की सुरक्षा के लिए कुछ तथ्यों का निर्देश दे रहे हैं। कोई साधक अपनी जमात में रहता हो या मुनिवेश में, किन्तु भावित आत्मा ही वास्तविक साधक-दशा पा सकती है । मुनि यदि अपने समुदाय में रहता है, इतने से ही वह महान साधक नहीं हो जाता। विशाल शिष्य परिवार में भी कई पोलें चलती हैं । अतः विशाल परिवार पर से किसी की साधना को नापना गलत होगा। इसी तरह मुनिवेश को मुनित्व-साधना न समझ ले। मुनिवेश में भी विपथगामी आत्माएं मिल सकती हैं। अतः मुनिवेश या जमात को संयम का प्रतीक मानना गंभीर भूल है।
बहुत से शृगाल परिवार से घिरा हुआ और नीले रंग में रंगा हुआ शृगाल राजा नहीं माना जा सकता।
___एक शृगाल नगर में आया। वहाँ कपड़े में नील देने की धोबी की कुण्डी में गिर गया। इससे वह नीले रंग से रंग गया। अपने विचित्र नीले रंग के कारण उसने स्वयं को वन का राजा घोषित कर दिया। वन-पशुओं की विशाल सभा जुड़वा कर बैठा हुआ था, तभी वहाँ वनराज (सिंह) के आ जाने से उसकी सारी पोल खुल गई।
___अतः साधना के पथ में वेष नहीं, आत्मा को बदलने की जरूरत है। आत्मस्थिति बदल गई तो वेष न बदलने पर भी मुक्ति में कोई बाधा नहीं आयगी।
इसके अतिरिक्त साधु अन्दर और बाहर में एक-सरीखा होना चाहिए। अन्तर् और बाह्य में वैषम्य होने पर साधक का जीवन दंभी हो जायेगा। दम्भी साधक उस शृगाल जैसा है, जो सिंह की खाल पहनकर घूमता है, या पशुओं का राजा होने का स्वप्न देखता है, किन्तु जिस क्षण वह बोलता है, या चेष्टा करता है, उस क्षण उसकी कलई खुल जाती है। इसी प्रकार मुनि