Book Title: Amardeep Part 02
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 275
________________ आत्मनिष्ठ सुख की साधना के मूल मन्त्र २४६ भीतर की गहराई में प्रवेश करे । वह यह देखे कि मुनिवेश के साथ मुनित्व है या नहीं ? कोरी वेशपूजा अनाचार-परम्परा बढ़ाती है । वह साम्प्रदायिक बुद्धि, कट्टरता, अन्धश्रद्धा को बढ़ावा देती है। व्यक्तिपूजा एवं वेशपूजा दोनों ही साम्प्रदायिकता के दो स्तम्भ हैं। इसमें गुणपूजा को तिलांजलि दे दी जाती है । अतः अर्हतर्षि वेशप्रतिष्ठा के स्थान पर गुणप्रतिष्ठा को विकसित करने की प्रेरणा दे रहे हैं। यही आत्मसुख का राजमार्ग है। आकाशचारी चिड़िया भी व्यक्ति के बाह्यवेश को नहीं, अन्तर् को परख लेती है। शिकारी जब गाता है तो वह चिड़िया चुप हो जाती है। शिकारी के संगीत पर वह मुग्ध नहीं होती, किन्तु उसकी हिंसात्मक भावना को जान लेती है। इसी तरह श्रावक भी साधु के वेश और बाह्य साधना को, तथा मैले वस्त्रों को आचारनिष्ठा एवं क्रियापात्रता न समझं। वह वेश और रूप को नहीं, साधना और गुण को देखे-परखे। मायाचारी, दम्भी और मधुरभाषी से दूर रहे • साधक कई बार विशाल परिवार में स्वयं को विशुद्ध संयमी समझ लेता है, परन्तु वह कितने गहरे पानी में है ? इसे देखते-परखते रहना चाहिए । इसी सन्दर्भ में वे कहते हैं परिवारे चेव वेसे य भावितं तु विभावए । परिवारे वि गंभीरे, ण राया णोलजंबुओ ॥२५॥ अत्थादाइं जणं जाणे, गाणाचित्ताणुभासकं । अत्थादाईण वीसंगे, पासंतस्स अत्थसंतति ॥२६॥ डंभ-कप्पं कत्तिसम, णियच्छम्मि विभावए । णिखिलामोसा कारित्तु, उवचारम्मि परिच्छती ॥२७॥ सध्वभावे दुब्बलं जाणे, णाणा-वण्णाणुभासकं । पुप्फादाणे सुणन्दा वा पवकारघरं गता ॥२८॥ दवे खेत्ते य काले य, सव्वभावे य सव्वधा । सव्वेसि लिंगजीवाणं, भावणं तु विहावए ।॥२६॥ अर्थात्- परिवार (सम्प्रदाय के टोले) में हो या मुनिवेश में, भावित आत्मा ही विशिष्ट भावदशा पा सकती है । विशाल परिवार में होने पर भी नील शृगाल राजा नहीं हो सकता ॥२५॥ अर्थ (धन) का लोभी व्यक्ति नानाविधरूप में चित्तहारी मधुरभाषाभाषी समझना चाहिए । अथवा अधिक मधुरभाषी को अर्थाभिलाषी समझना

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