________________
२४८
अमरदीप
बंभचारी जति कुद्धो, वज्जेज्ज मोह-दीवणं । ण मूढस्स तु वाहस्स मिगे अप्पेति सायकं ॥२२॥ पच्छाणं चेव रूवं च णिच्छंमि विभावए ।
किमत्थं गायते बाहो तुहिका वावि पक्खिता ॥२३॥ अर्थात्-वेश-प्रच्छादन अर्थात् - मुनि के वस्त्रादि से आच्छादित मुनिभाव से विरुद्ध क्रियाओं को रोकता हुआ, वह मिथ्यात्वादि क्रियाओं से असम्बद्ध रहे। बुद्धिमान् साधक के लिए अरतिप्रायोग्य (आसक्ति विरोधी) वस्तुएँ (मुनिवेष-उपकरणादि) धारण करना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु उसे मुनिभाव से विरुद्ध क्रियाओं से भी बचना आवश्यक है ॥२१॥
ब्रह्मचारी यति क्रुद्ध होकर भी मोहोद्दीपक वस्तुओं का परित्याग करे, क्योंकि. मूर्ख शिकारी के बाण मृग को वेध नहीं सकते ॥२२॥ ___मुनि वेश और रूप का निश्चयतः विचार करे। व्याध क्यों गाता है और पक्षी चुप क्यों हैं ? ॥२३॥
प्रज्ञाशील साधक संसार की कामना-वासना से मुक्त होता है, अतः उसे अब अन्तर की साधना तेजस्वी बनानी चाहिए। मुनित्व की उज्ज्वल साधना के लिए केवल मुनिवेश, उपकरण आदि ही पर्याप्त नहीं हैं, वेषपरिवर्तन के साथ हृदय-परिवर्तन भी अनिवार्य है। आज मुनिवेश को ही मुनित्व समझा जाता है । यह केवल वेश पूजा है । मुनिवेश में रहा हुआ मुनि वेशरक्षा. के साथ-साथ अपने आन्तरिक मुनि-जीवन की रक्षा के लिए सदैव कटिबद्ध रहे । साधक की वृत्ति-प्रवृत्ति मुनिभाव को क्षत-विक्षित न कर सके, इसके लिए सयमविरुद्ध किसी भी विचार और आचार को वह प्रश्रय न दे।
ब्रह्मचारी साधू कभी कूपित न हो, क्योंकि क्रोध आत्मा की विभाव परिणति है-स्वभाव नहीं। कदाचित् क्रोध आ जाय तो भी वह क्रोध के पागलपन में मोह को उत्तेजित करने वाला कार्य न कर बैठे । क्रोध में आकर मनुष्य संथारा करने को उतारू हो जाय तो यह दुष्प्रत्याख्यान है, यह ज्ञानप्रेरित त्याग नहीं, किन्तु आवेशवश किया हुआ है । मोह के कीचड़ में फंस कर साधक अपनी साधना को उसी प्रकार व्यर्थ नष्ट कर देता है, जैसेमूर्ख शिकारी अपने बाणों को। मोहशील साधक की निर्वाण-साधना लक्ष्यभ्रष्ट हो जाती है।
___ इसके साथ साधक अपना अन्तनिरीक्षण भी करे कि मेरे मूनिवेष में और उसके रूप यानी मुनिभाव में कहाँ तक साहचर्य है ? वह केवल स्थूलद्रष्टा बनकर ही अपने माने हुए ऊपरी गज से जीवन को न मापे; अपितु