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अनित्य एवं दुःखमय संसार में मत फंसो ११ अंशत: क्षय) भी करता है। किन्तु जितना बन्ध होता है, उतनी मात्रा में निर्जरा नहीं होती. इसलिए यह निर्जरा उसकी कर्मपरम्परा को समाप्त नहीं कर पाती। फलतः उसकी संसार-परम्परा का अन्त नहीं हो पाता। इसका कारण यह है कि विपाकोदय में आए हुए जितने कर्मों को भोगकर जीव क्षय करता है, उनसे अनन्त गुणा अधिक कर्मों को, वह निमित्तों पर राग-द्वेष के परिणाम लाकर पुनः बाँध लेता है। कर्मों के इस अनादि क्रम को अहंतर्षि रेहट की घड़िया का दृष्टान्त देकर समझाते हैं कि रेंहट की घड़िया में पुराना पानी खाली होते ही नया पानी तुरन्त भरता जाता है, वह घड़िया कभी खाली होती ही नहीं। इसी प्रकार जीव के साथ कर्मों की परम्परा चालू रहती है।
विभिन्न प्रकार के कर्मों से जीव स्वयं ही बंधता है, और मुक्त भी स्वयं ही होता है । यह कर्मवाद का अटल सिद्धान्त है। एक के बदले दूसरा प्राणी न तो उसके कर्म को बाँध सकता है और न ही एक के कर्म से दूसरा मुक्त हो सकता है। वैसे तो कर्म जड़ पुद्गलद्रव्य हैं और आत्मा चेतन-जीवद्रव्य है, दोनों पृथक्-पृथक् हैं । किन्तु जब आत्मा में राग-द्वेष के स्पन्दन होते हैं तब कर्म-परमाणु आत्मा से चिपक जाते हैं। आत्मा से सम्बद्ध होने के पश्चात कर्म के परमाणओं में ऐसी शक्ति उत्पन्न होती है कि वह आत्मा के भिन्न-भिन्न गुणों को रोक सकते हैं। कई कर्म चेतना को अवरुद्ध करते हैं, कई उसकी विशुद्ध दृष्टि को मलिन करते हैं और शुद्ध प्रवृत्ति को रोकते हैं। पुद्गलों के स्वभाव में अन्तर अनुभवसिद्ध है। मिर्च तीखे तत्त्व वाली है तो घी स्निग्ध तत्व वाला है। इसी प्रकार कर्म-परमाणु विभिन्न स्वभाव के होते हैं ।
प्रस्तुत सैंतीसवीं गाथा में इस सम्बन्ध में एक और तथ्य अभिव्यक्त किया गया है कि जब तक कर्म आत्मा से पृथक होते हैं, तब तक कर्म और आत्मा दोनों स्वतन्त्र हैं, किन्तु जब वे आत्मा से बद्ध हो जाते हैं, तब आत्मा की स्वतंत्र शक्ति अवरुद्ध हो जाती है। फिर कर्मद्रव्य उसे अपनी शक्ति के अनुरूप परिभ्रमण कराता है। जिस प्रकार रस्सी से बंध जाने पर मनुष्य को उसी की दिशा में गति करनी पड़ती है, उसी प्रकार कर्म रज्जु से आत्मा के बंध जाने पर उसे कर्म की दिशा में ही गति करना पड़ता है।
अतः आत्मा को कर्म-परम्परा से सर्वथा मुक्त (पृथक) करने के लिए साधक को सर्वप्रथम कर्मों की विचित्रता एवं विभिन्नता का सम्यक् प्रकार से परिज्ञान करना चाहिए, साथ ही साधक को उदयप्राप्त कर्मों के फल को