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लोक का आलोकन १७३
इससे यही प्रेरणा मिलती है कि प्रत्येक साधक को परभाव तथा वैभाविक गुणों को त्याग कर स्वघर में (स्वरूप में) आ जाना चाहिए । लोक : नित्य या अनित्य ? अन्त में अर्हतषि काल की अपेक्षा से लोक की व्याख्या करते हुए कहते हैं । जिसका भावार्थ इस प्रकार है
"यह लोक कभी नहीं था; ऐसा नहीं था । 'यह कभी नहीं है, ऐसा भी नहीं है, कभी नहीं रहेगा यह भी सम्भव नहीं है । यह लोक पहले भी था, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगा, क्योंकि यह लोक ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है अक्षय है, अव्यय है, और नित्य है । जैसे कि पंचास्तिकाय पहले कभी नहीं थे, ऐसा नहीं है । इसी प्रकार यावत् लोक नित्य है । .........लोक भी कभी नहीं था, ऐसा नहीं है यावत् नित्य हैं ।
बन्धुओ !
प्रस्तुत पाठ में लोक की शाश्वतता बताई गई है । चूँकि लोक पंचास्तिकायात्मक है । धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव के अतिरिक्त कोई लोक नहीं है । पंचास्तिकाय नित्य हैं तो लोक भी नित्य है । यहाँ द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से लोक वक्तव्यता कही गई है । अनन्तकालपूर्व भी लोक लोकभाव में विद्यमान था, वर्तमान में भी वह उपस्थित है और अनन्त अनन्त काल बीत जाने पर भी लोक विद्यमान रहेगा । पर्यायार्थिकनय की दृष्ट से पर्याय की अपेक्षा लोक प्रतिक्षण विनष्ट हो रहा है और नया उत्पन्न भी हो रहा है । अतः लोक और गति को समझ कर आप भी आत्मा की स्वाभाविक ऊर्ध्वगति प्राप्त करने के लिए अपना जीवन ऊर्ध्वगामी बनावें । धर्म से ही जीवन ऊर्ध्वगामी बन सकता है ।