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१८४ अमरदीप की सौरभ है, उसका जीवन समय पर बरसने वाले मेघ के सदृश यशस्वी बनता है। अज्ञानियों के संसर्ग से दूर रहो ऐसे अज्ञानी लोगों के संसर्ग का निषेध करते हुए अर्हतषि कहते हैं
व बालेहिं संसग्गिं, व बालेहि संथवं । धम्माधम्मं च बालेहि, व कुज्जा कडाइ वि ।।५।। इहेवाकित्ति पावेहि पेच्चा गच्छेइ' दोग्गति ।
तम्हा बालेहि संसग्गि व कुज्जा कदावि वि ॥६॥ साधक अज्ञानियों का संसर्ग न करे और न ही उनसे (वास्ता) परिचय रखे। उनके साथ धर्माधर्म की चर्चा भी कदापि न करे ॥५॥
__ पापियों के संसर्ग से यहाँ भी अपयश मिलता है और आगे भी आत्मा दुर्गति प्राप्त करता है । अतः साधक अज्ञानियों का संसर्ग कदापि न करे ॥६॥
__ प्रस्तुत दोनों गाथाओं में अज्ञानियों के संसर्ग से दूर रहने की प्रेरणा दी गई है। अज्ञजनों का परिचय भी कष्टप्रद होता है। कोयले का व्यापार करने वाले के हाथ कोयले के संग से काले हए बिना नहीं रहते । इसी प्रकार अज्ञानियों से अतिपरिचय रखने वालों का जीवन भी उज्ज्वलता को खो बैठता है । यह कहावत है-'जैसा संग, वैसा रंग' मनुष्य जिसके साथ रहता है, वैसा ही बन जाता है।
कहने का मतलब यह है कि संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति' दोष और गुण प्रायः बुरे या अच्छे. संसर्ग से प्राप्त होते हैं । जिस प्रकार मानव-शिशु भेड़ियों के साथ रह कर भेड़ियों की तरह गुर्राना सीख जाता है, उसी प्रकार कई बकरी चराने वाले अजापाल भी बकरी के साथ अधिक संसर्ग के कारण बकरी की तरह व नीचे झुक कर पानी पीना भी सीख जाते हैं। नीतिकार कहते हैं
हीयते हियतिस्तात ! हीनः सह समागमात् ।
समेश्च समतामेति, विशिष्टैश्च विशिष्टताम् ॥ नीच पूरुषों के साथ समागम करने से बुद्धि का ह्रास होता है। समान विचार-आचार वाले के साथ रहने से समानता आती है और विशिष्ट व्यक्तियों के साथ रहने से विशेषता प्राप्त होती है।
प्याज जिस थैली में रखा हो, उससे प्याज की बदबू आयगी और गुलाब के फूल जिस थैली में रखे गये हैं, उससे गुलाब की महक आयगी।