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कषायों के घेरे में जाग्रत आत्मा २११
प्रकार आलोचना करने में माया कपट रखने से वह अशुद्ध आलोचना निर्जरा ( कर्मक्षय) का कारण नहीं बन सकती ।
अतः मायाविजय के लिए हृदय में सरलता - निष्कपटता धारण करनी चाहिए | क्योंकि सरल हृदय भूमि में ही धर्म का पौधा लगता है ।
लोभ - विजय क्यों और कैसे ?
अब लोभविजय के विषय में अर्हतर्षि अद्दालक कहते हैं
अण्णाण farrior पच्चु पण्णाभिधारए । लोभ कच्चा महाबाणं, अप्पा बिधइ अप्पकं ॥ ७ ॥
मण्णे बाणेण विद्ध े तु भवमेकं विणिज्जति । लोभ-बाणेण विद्ध े तु णिज्जती भवसंतति ॥८॥
अज्ञान से घिरा हुआ मूढआत्मा केवल वर्तमान को ही ग्रहण करता है । लोभ को महाबाण बनाकर उसके द्वारा आत्मा स्वयं को बींध लेता है ॥७॥
अन्य बाण से बींधा हुआ आत्मा एक भव को हो खोता है, परन्तु लोभ-बाण से बिद्ध व्यक्ति अनेक भवों को खो बैठता है ||८||
आगम में कहा गया है - 'लोभो सव्वविणासणो' - लोभ समस्त विनाश का हेतु है । वह पाप का बाप है । अतः आत्मार्थी साधक को लोभ का सर्वथा त्याग करना अनिवार्य है । चेडाराजा और कोणिक के बीच हुए महायुद्ध और भीषण नरसंहार के पीछे हृदय का लोभ ही तो था । विभिन्न राष्ट्रों में होने वाले खूंखार जंग के पीछे लोभ ही तो बोलता है । संग्रहवृत्ति, तस्करी, कालाबजारी, जमाखोरी, और शोषणवृत्ति के पीछे लोभरूपी महापाप ही काम करता है । अतः लोभवृत्ति को नष्ट करने के लिए सन्तोषवृत्ति धारण करनी चाहिए ।
कषायों के विनाश के लिए कतिपय उपाय अब अर्हतषि कषायों के विनाश के लिए कुछ उपायों का निर्देश करते हुए कहते हैं -
तम्हा तेसिं विणासाय सम्ममागम्म सम्मतिं । अप्पं परं च जाणित्ता, चरेऽविसय- गोवरं ॥ ६ ॥ जेसु जायंते कोधाती, कम्मबंधा महाभया । ते वत्थू सव्वभावेण सव्वहा परिवज्जए ॥१०॥