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२३६ अमरदीप
सुख के सूर्य के बाद दुःख की कालीरात्रि आने की सम्भावना रहती है । उस आत्मनिष्ठ सुख में प्रेय का नहीं, श्रय का आग्रह है । वह असीम सुख वस्तु की क्षणिक मधुरिमा में नहीं बसता, किन्तु वह आत्मा के निज स्वरूप की प्राप्ति में है । वहाँ राग और मोह से रहित सात्त्विक आनन्द है, पूर्ण तृप्ति है | भगवद्गीता (५।२१ ) में उस आत्मनिष्ठ अक्षय सुख सम्पन्न का लक्षण इस प्रकार दिया है
बाह्य- स्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् । ब्रह्म-योग-युक्तात्मा
स
सुखमक्षयमश्नुते ॥
अर्थात् - बाह्य विषयों में आसक्ति-रहित अन्तःकरण वाला पुरुष आत्मा में जिस सुख को प्राप्त करता है, ऐसा ब्रह्मयोग (परमात्मयोग अथवा आत्मस्वरूप रमणयोग) से युक्त आत्मा अक्षय सुख का अनुभव करता है । प्रस्तुत अड़तीसवें अध्ययन में अहं तषि सातिपुत्र इसी अक्षय सुख का तथा कतिपय सुखाभासों का स्वरूप बताते हुए कहते हैं
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जं सुहेण सुहं लद्ध, अच्चतसुहमेव तं ।
जं दुहेण दुहं लक्ष, मा मे तेण समागमो ॥ १ ॥ सातिपुत्तरेण बुद्धण अरहता इसिणा बुझतं ।
अर्थात् - जिस सुख से आत्यन्तिक सुख प्राप्त होता है, वही वास्तविक सुख है; किन्तु जिस सुख से दुःख की प्राप्ति हो, उससे मेरा समागम न हो; ऐसा सातपुत्र बौद्ध अर्ह तर्षि ने कहा I
यहाँ दो प्रकार के सुखों का स्वरूप बताया गया है । एक सुख वह है जो प्रारम्भ में भी मधुर है और अन्त में भी मधुर है ।
दूसरा सुख ऐसा है, जो पहले तो मोठा लगता है, परन्तु फिर कड़वा ( दुःख से लिप्त ) बन जाता है ।
भौतिक पदार्थों का या वैषयिक सुख दूसरे प्रकार का है । वह उस मक्खी का सुख है जो शहद देखती है, उसका मिठास देखती है, किन्तु वह यह नहीं देखती कि इसमें गिरने के बाद मेरी क्या हालत होगी ?
स्थानांगसूत्र में इस सम्बन्ध में एक चोभंगी बताई गई है१. जिसकी आदि में सुख है और अन्त में भी सुख है । २. जिसकी आदि में सुख है, और अन्त में दुःख है । १. जिसकी आदि में दुःख है और अन्त में सुख है ।