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आत्मनिष्ठ सुख की साधना के मूल मन्त्र २४५
निर्लिप्त रहता है । परभावों से दूर रहकर वह आत्मभाव में स्थित रहता है । वह विश्व में कहीं चला जाय सर्वत्र धर्मध्यान में लीन रहेगा ।
विचित्रताओं से भरी इस विशाल सृष्टि में माधुर्य है, किन्तु जिसका मन, स्वार्थ, मोह, आर्त्तध्यान आदि से पीड़ित है, उसके लिए दुःखरूप है । ज्वरग्रस्त व्यक्ति के लिए शीतल-मन्द-सुगन्धित पवन भी कष्टप्रद होता है । वस्तुतः यह सृष्टि अपने आप में न तो सुखरूप है और न ही दुःखरूप | मनुष्य जिस प्रकार की दृष्टि लेकर चलेगा, यह उसी रूप में ढलती हुई दिखाई देगी। वेदना से छटपटाते हुए व्यक्ति को सारी सृष्टि दुःख का सन्देश देती है, जैसे कि कामी के लिए सारी सृष्टि काम की प्रेरणा देती है । अतः दृष्टि बदलते ही सृष्टि बदल जायेगी। सृष्टि को आत्मनिष्ठ सुखरूप बनाने के लिए दृष्टि सम्यक् और पवित्र होनी चाहिए ।
सर्वकर्मक्षयंकर तत्त्व ही सर्वदुःखान्तकर
अब अर्ह तर्षि उन तत्त्वों का प्रतिपादन करते हैं, जो समस्त कर्मों का क्षय करने में सक्षम हैं
सम्मत्तं च दयं चंव, णिण्णिक्षणो य जो दमो । तवो जोगो य सब्वो वि सव्वकम्मखयंकरो ॥१७॥
अर्थात् - सम्यक्त्व, दया, निदानरहित दम, संयम, तप और उससे होने वाला समस्त (शुभ) योग, ये सभी कर्मों का क्षय करने वाले हैं ॥ १७ ॥ जिसकी दृष्टि सम्यक् हो चुकी है, वह बाहर से हटकर अन्तर् की ओर मुड़ जाता है । उसके अन्तर् में प्राणिमात्र के प्रति आत्मीयता और दया का झरना बहने लगता है । उसकी सर्व साधनाएँ निदान रहित होती हैं । ऐसे साधक की समस्त शक्ति कर्मक्षय करने में प्रवृत्त हो जाती है । ऐसा ही साधक समस्त दुःखों से रहित होकर आत्मनिष्ठ सुख की पराकाष्ठा पर पहुंच सकता है ।
सुख के लिए कौन-सा कार्य करे कौन-सा नहीं श्रावक की भूमिका पर आरूढ़ व्यक्ति के लिए कार्य विवेक बताते हुए कहते हैं
सात्थकं वा वि आरंभ, जाणेज्जा य णिरत्थकं । पाहित्थिस्स जो एतो, तडं घातेति वारणो ॥ १८ ॥ जस्स कज्ज़स्स जो जोगो, साहेतु जेण पच्चलो । कज्जं कज्जेति तं सव्वं, कामी वा जग्ग-मुण्डणं ॥ १६ ॥