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सृष्टि का रहस्य २३३ विश्व की इस प्रकार से उत्पत्ति मानने वाले अग्निहोत्रों की दैनन्दिनी साधना भी यहां बताई गई है।
इस प्रकार सृष्टि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में वैदिक-परम्परा दिखाकर अब जैनपरम्परा का दिग्दर्शन कराते हुए अर्ह तर्षि कहते हैं
'ण वि माया ण कदाति गासि, ण भवति, म कदाति ण भविस्सति य ।' .
अर्थात्-यह लोक माया नहीं है । तथा यह लोक कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, कभी नहीं है, ऐसा भी नहीं है और कभी नहीं रहेगा, ऐसा भी नहीं है।"
आशय यह है कि जनदर्शन के अनुसार विश्व माया नहीं है, इसे माया मानने पर मात्मा जैसा कोई तत्व नहीं रहता। तब पुण्य, पाप, साधना आदि सभी निष्फल हैं। अतः विश्व सत्य है । वह त्रिकालवर्ती है । वह भूत में था, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगा। किन्तु, द्रव्यरूप से यह लोक शाश्वत होते हुए भी, पर्यायरूप से प्रतिक्षण बदल रहा है । लोक का सम्पूर्ण नाश मानने पर उसकी उत्पत्ति भी माननी होगी, जोकि तर्कसंगत नहीं है। अतः जैनदर्शन की यह स्पष्ट मान्यता है कि यह विश्व सत् है। सत् उत्पन्न भी होता है, नष्ट भी होता है और तत्वरूप से ध्रव रहता है। उसका रूप बदलता है, पर स्वरूप नहीं बदलता।
लोक का प्रस्तुत स्वरूप और साधक का कर्तव्य लोक का उपयुक्त स्वरूप जानकर साधक क्या करे ? इस विषय में अर्हतर्षि कहते हैं
पडुप्पणमिणं सोच्चा सूरसहगतो गच्छे । जत्थ चेव सूरिये अत्थमज्जा खेत्तंसि वा पिण्णंसि वा, तत्थेव गं पादुप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलते । एवं खलु से कप्पति पातीणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा पुरतो जुगमेत पेहमाणे आहारीय मेव रीतित्तए।
__ अर्थ - प्रत्युत्पन्न अर्थात् (विश्व के सम्बन्ध में) वर्तमान इस तथ्य को सुनकर साधक सूर्य के साथ गमनागमन करे । जहाँ सूर्य अस्त हो, वहीं रुक जाए, चाहे वहाँ खेत हो या ऊँची-नीची भूमि हो । वहां रात्रि के व्यतीत हो जाने पर प्रभातकाल में तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के उदय होने पर साधक को पूर्व, पश्चिम, उत्तर या दक्षिण किसी भी दिशा में युगमात्रभूमि को देखते हुए ईर्या समितिपूर्वक गमन करना कल्पनीय है । उस प्रकार चलने वाला साधक कर्मक्षय करता है।'
साधक लोक-विषयक सत्य को पहचाने और फिर सूर्यविहारी बने ।