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२२६ अमरदीप रटाया जाता है, मगर उसे सिखाया जाता है-क्रोध करना ही। सर्वत्र क्रोध का ही महाशासन है।
मौत तो शरीर को मारती है, लेकिन क्रोध संयम की मृत्यु है । सुमेरु के समान विशाल और सारशील संयम को क्रोध की नन्ही-सी चिनगारी मिनटों में भस्म कर डालती है। चण्डकौशिक विषधर के पूर्वजन्म की कहानी इसका ज्वलन्त उदाहरण है। क्रोध से लाभ नहीं, हानि ही
- अब तारायण अर्हतर्षि क्रोध से होने वाली हानियों को उजागर करते हुए कहते हैं
महाविसे 'वाही वित्त,. घरे दत्तंकरोदये। चिट्ठ-चिट्टे स रूसन्ते, णिव्विसत्तमुपागते ॥१०॥
एवं तवोबलत्थे वि णिच्चं कोहपरायणे। , अचिरेणात्रि कालेण तवोरित्तत्तमिच्छति ॥११॥
गंभीरो वि तवोरासी, जीवाण दुक्खसंचिओ। ...... अखेविण दवग्गि वा कोवग्गी न दहते खणा ॥१२॥
कोहेण अप्पं डहती परं च, अत्थं च धम्म च तहेव काम। तिब्वं च वेरपिःकरेंति कोधा, अधरं गति वा उविति कोहा॥१३॥ कोहाविद्धा ण याणंति मातरं पितरं गुरु ।
अधिक्खिवंति साधू य रायाणो देवयाणि य ॥१४॥ ___कोवमूलं णियच्छंति धणहाणि बंधणाणि य।'
पिय-विप्पओगे यहु जम्माइं मरणाणि य ॥१५॥ ___ अर्थात्-जैसे भयंकर महाविषधर सर्प अहंकार में आकर वृक्ष को भी डस लेता है, तो उसमें अंकुर भी फूटने नहीं देता। अथवा यदि किसी महापुरुष को डसता है, तब उन्हें रोमांच भी नहीं होता, तब वह गुस्से से उत्तेजित होकर रह जाता है, क्योंकि उसका विष वृथा चला गया, अब वह निविष बन गया है। उसी प्रकार महान् बलशाली तपस्वी भी यदि क्रोध करता है तो उसका तप समाप्त हो जाता है। १०-११ ॥
गम्भीर तपोराशि, जिसे कि साधक महाकष्टकारी साधना के बाद संचित कर पाता है, क्रोधाग्नि तत्क्षण उसे उसी प्रकार भस्म कर डालती है, जिस प्रकार प्रज्वलित दावाग्नि सूखे लकड़ों को जला डालती है ॥१२॥