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क्रोध की अग्नि : क्षमा का जल
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क्रोध का निग्रह साधक के लिए अनिवार्य तारायण क्रोध - निग्रह की अनि
अब अन्तिम दो गाथाओं में अर्हतषि वार्यता और उपयोगिता बताते हुए कहते हैं
जेणाभिभूतो जहती तु धम्मं, विद्ध सती जेण कतं च पुण्णं । स तिव्वजोती परमप्पमादो, कोधो महाराज ! णिरुज्झियव्वो ।। १६॥ हट्ठ करेतीह निरुज्झमाणो, भास करतीह विमुच्चमाणो । हट्ठ च भासं च समिक्ख पण्णे, कोवं णिरुम्भेज्ज सदा जितप्पा ॥१७॥
अर्थात् - जिसके द्वारा अभिभूत होकर यह आत्मा धर्म को छोड़ देता है, और जिसके द्वारा किया हुआ पुण्य नष्ट हो जाता है, हे महाराज ! उस तीव्र अग्नि और परम प्रमादरूप क्रोध का निग्रह करना चाहिए ॥१६॥
जो निरोधित किये जाने पर मनुष्य को हृष्ट-तुष्ट करता है, और जिसे छोड़े ( प्रकट किये जाने पर प्रकाश ( भड़का ) करता है, क्रोध की इन दोनों (हृष्ट और प्रकाशित ) गतियों को समझ कर प्रज्ञावान् एवं जितात्मा साधक को दोनों प्रकार के क्रोध का निरोध करना चाहिए ||१७||
क्रोध से दो बड़ी हानियाँ हैं, एक तो यह आत्मा के स्वधर्म - क्षमा का नाश करता है | क्षमा आत्मा का स्वधर्म है, क्रोध पर धर्म है । दूसरे वह उपार्जित पुण्य को समाप्त कर देता है । ये दोनों हानियां स्पष्ट हैं ।
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आग तीव्र हो जाने पर यदि उसका उपयोग ठीक से न किया जाए तो वह भस्म कर डालती है, इसी प्रकार क्रोधरूपी तीव्र आग का अगर शमन न किया जाए तो वह अनेकों को भस्म कर डालती है । 'पांच प्रमादों में क्रोध प्रमुख प्रमाद है । प्रमाद के वश तो बड़े-बड़े अनर्थ होते देखे गए हैं । क्रोधरूपी महाप्रमाद से भी भयंकर अनर्थ हो तो कोई आश्चर्य नहीं । अतः क्रोध को उत्पन्न होते ही रोक देना चाहिए। क्रोध के प्रसंग में शान्ति, क्षमा और बोधजनक हास्य का प्रयोग करना चाहिए, ताकि क्रोध की आग के बदले शान्ति और क्षमा का जल वहाँ बहने लगे ।
परन्तु क्रोधशमन करने से पहले यह देखना चाहिए कि यह क्रोध प्रकट है या अप्रकट | पहला प्रज्वलित आग है, जबकि दूसरा दबी हुई आग के समान है । क्रोध का एक रूप ऐसा है कि उसकी ज्वालाएँ बाहर फूटती दिखाई देती हैं- दूसरा वह क्रोध है, जिसकी ज्वालाएँ बाहर तो नहीं दिखाई देतीं, लेकिन भीतर ही भीतर अनबुझे कोयले की तरह सुलगता रहता है । यह भीतर की आग, बाहर की आग से अधिक भयंकर होती है । बाहर की आग तो