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२१६ अमरदीप है, परन्तु आप तो कषायवश होकर कर्मबन्धन मुफ्त में कर लेंगे। इसलिए अर्हतर्षि कहते हैं कि दूसरे को पापाचरण करते देखकर भी आप मौन रह जाएँगे तो इसमें आपकी क्या हानि हो जाएगी ? सारी दुनिया को सुधारने का ठेका आपने नहीं लिया है । इसके अतिरिक्त उसके पुण्य-पाप की जिम्मेदारी आप पर नहीं है। प्रत्येक आत्मा स्वकृत कर्म भोगता है, परकृत नहीं। फिर आप दूसरे के जीवन की आलोचना, निन्दा करके कौन-सा पुण्य उपार्जन कर रहे हैं ? दशवैकालिक सूत्र में तो स्पष्ट कहा है
पिट्ठीमंसं न खाएज्जा पीठ का माँस मत खाओ यानी परनिन्दा या चुगली मत करो। परनिन्दा को नीच गोत्रकर्मबन्ध का हेतु भी बताया है।
__ आज का साधक प्रायः अपने पापों-दोषों पर पर्दा डालने या स्वयं को उत्कृष्ट बताने के लिए दूसरे साधकों की कटु आलोचना करता है । किन्तु पर की आलोचना आत्मा को विनाश के पथ पर ले जाती है जबकि स्व की आलोचना विकास का-निर्जरा का हेतु है। आत्मार्थी व्यक्ति दूसरे के दोषों के प्रति दृष्टि नहीं रखते। छिद्रान्वेषण वा परदोषदर्शन की वृत्ति साधक को कषाय वृद्धि की ओर ले जाती है। अतः पर की आलोचना से बचो, जो कर्मबन्ध का हेतु है जबकि अपनी आलोचना आत्मिक शान्ति का हेतु बनती है।
. कषायचोरों से जाग्रत रहो अब अर्हतर्षि चारों कषायों को चोर बताकर उनसे जाग्रत रहने का सन्देश देते हुए कहते हैं--
अण्णातपम्मि अट्टालकम्मि किं जग्गिएण वीरस्स? णियगम्मि जग्गियस्वं, इमो हु बहुचोरतो गामो ॥१७॥ जग्गाहि मा सुवाहि, मा ते धम्मचरणे पमत्तस्स । काहिंति बहुंचोरा, संजमजोगे हिडाकम्मं ॥१८॥ पंचेंदियाइ सण्णा दडं सल्लाइ गारवा तिण्णि । बावीस च परीसहा चोरा चत्तारि य कसाया ॥१६॥ जागरह णरा णिच्चं, मा भे धम्मचरणे पमत्ताणं । काहिंति बहुचोरा दोग्गतिगमणे हिडाकम्म ॥२०॥ अण्णायकम्मि अट्टालकम्मि, जग्गंत सोयणिज्जोसि । शाहिसि वणितो संतो ओसहमुल्ल अविदंतो ॥२१॥