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२१४ अमरदीप
की बात करना भी अशान्ति की आग को अन्तर् में दबाये रखना है । अत: आत्मार्थ- परार्थ विवेक भी कषायविजय के लिए आवश्यक है ।
कषायविजय के अन्य उपाय
कषाय की उत्पत्ति का प्रमुख कारण है - परदोषदर्शन, परनिन्दा अथवा दूसरे की आलोचना । ये तीनों दोष एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं । साधक का ध्यान कषायविजय के लिए इन दोषों से दूर रहने की ओर खींचते हुए अर्हषि कहते हैं
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सए गेहे पलित्तम्मि, किं धावसि परातकं ? सयं गेहं णिरित्ताण, ततो गच्छे परातकं ।। १३ । आतट्ठे जागरो होही परट्ठा हिधारए । आतट्ठो हावए तस्स जो परट्ठाहिधारए ॥१४॥ जइ परो पडिसेवेज्ज पावियं पडिसेवण । तुझ मोणं करेंतस्स के अट्ठे परिहायति ? ।। १५ ।। आतट्ठो णिज्जरायंतो परट्ठो कम्मबंधणं । अत्ता समाहिकरण अप्पणो य परस्स य ॥ १६॥
अर्थात् — जब अपना घर जल रहा है, क्यों दौड़ रहे हो ? स्वयं के घर की ओर जाओ
तब दूसरे के घर की ओर
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आत्मार्थ के लिए जाग्रत रहो, परार्थ को धारण न करो। जो दूसरे के अर्थ ( कार्य ) को साधने में लग जाता है, वह आत्मार्थ ( स्वहित ) को खो
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बैठता है ॥ १४ ॥
यदि दूसरा कोई पाप की प्रतिसेवना कर रहा है, तो तुझे मौन रहने में क्या हानि होती है ।। १५ ।।
आत्मार्थ ( स्वहित) का विचार निर्जरा का कारण बनता है, जबकि (केवल) परार्थ (दूसरे की ओर दृष्टि) कर्मबन्धन का हेतु है । आत्मा ही स्व और पर के लिए समाधि - कारक है ॥१६॥
अर्हतषि ने इन चार गाथाओं द्वारा साधक को कषायोत्पादन से बचने के लिए उपाय बताये हैं- परनिन्दा से दूर रहना, परार्थ में न पड़ना, दूसरों के दोष न देखना आदि ।
मनुष्य को दूसरे की आलोचना, निन्दा करने में बहुत रस आता है । दूसरे के दोषों को देखने में उसकी आँखें दौड़ जाती हैं, किन्तु साधक का स्वयं का जो घर जल रहा है, उसकी ओर देखने का उसे अवकाश ही नहीं ।