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कषायों के घेरे में जाग्रत आत्मा .
धर्मप्रेमी श्रोताजनो!
अनन्त-अनन्त काल से आत्मा शान्ति की खोज में भटक रहा है, किन्तु शान्ति के लिए किए गये वे सभी प्रक्व ठंडी हवा पाने के लिए ज्वालामुखी पर्वत पर चढ़ने जैसे हो रहे हैं। हिमालय के बदले ज्वालामुखी को चुनकर शान्ति की आशा कितनी बड़ी मूर्खता है ! दूध को उफनते समय थोड़े-थोड़े पानी के छींटे दे देने और नीचे जलती हुई आग में ईंधन को झोंकते रहने से जैसे दूध का उफान शान्त नहीं हो सकता, उसी प्रकार आज शान्ति का प्रयत्न हो रहा है । शान्ति के लिए प्रयत्न करने वाला मानव केवल 'ॐ शान्ति' का उच्चारण कर ले किन्तु कषायों को दूर न करे, तब तक शान्ति दूर ही रहेगी।
प्रस्तुत पैंतीसवें अध्ययन में 'अहालक अर्हतषि' ने शान्ति और मुक्ति के के लिए कषाय-विजय की प्रेरणा देते हुए कहा है
चउहिं ठाणेहिं खलु भो जीवा कुप्पंता मज्जंता गृहंता लुभंता वज्ज समादियंति।
वज्जं समादित्ता चारंत-संसारकंतारे पुणो-पुणो अत्ताणं परिविद्ध संति, तंजहा-कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं । . अर्थात्-हे साधक ! इन चार स्थानों से जीव पाप को ग्रहण करते हैं-क्रोध करते हुए, मद करते हुए, छिपाते (माया करते हुए और लोभ करते हुए।
इन चारों स्थानों (कषायों) से पाप को ग्रहण करते हुए वे जीव चातुर्गतिक संसाररूपी अरण्य में अपनी आत्मा (आत्म गुणों) को बार-बार नष्ट करते हैं । वे चार (पाँच संचयिता) इस प्रकार हैं-क्रोध के द्वारा, मान के द्वारा, माया के द्वारा और लोभ के द्वारा ।