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.२०८ अमरदीप इन्द्रियों से संवृत होकर केवल शरीर धारण के लिए, योगों के संधान के लिए नवकोटि परिशुद्ध, दस एषणा दोषों से विप्रमुक्त, सोलह उद्गम और सोलह उत्पाद के दोषों से शुद्ध, यहाँ-वहाँ अन्यान्य कुलों (घरों) से दूसरों के लिए बनाया हुआ, दूसरों के लिए तैयार किया हुआ, अंगार और धूम दोषों से रहित, शस्त्रातीत और शस्त्रपरिणत आहार (पिण्ड), शय्या और उपधि को ग्रहण करता हूं और अपनी आत्मा को भावित करता हूं। इस प्रकार अद्दालक अर्ह तर्षि ने कहा।
कषाय की जड़ों को उखाड़ने के लिये साधक को उन-उन बातों से दूर रहना आवश्यक है, जो उसके कषायों की जड़ों को सींचने वाले हैं । यहाँ अर्हतर्षि ने स्वयं ने उन्हीं बातों को अपनाया है, जो कषायमुक्ति में सहायक हैं । क्रोध, मान, माया और लोभ को नष्ट करने के लिएक्षमा, विनय, . सरलता और निर्लोभता में रत रहना चाहिए।
कषायों को भड़काने वाले मन-वचन-काया योग की आत्मविघाती प्रवृत्तिरूप त्रिदण्ड से माया-निदान-मिथ्यादर्शनरूप तीन शल्यों से, स्त्री-भक्तराज-देश चार विकथाओं से दूर रहना भी अनिवार्य है । इन्द्रियों पर भी संवर (नियन्त्रण) रखना जरूरी है । अशुभ में प्रवृत्ति एवं शुभ से निवृत्ति न हो, इसलिए तीन गुप्तियों एवं पांच समितियों से युक्त रहना आवश्यक है। देह-धारण करने तथा त्रियोगों से सम्यक प्रवृत्ति करने हेतु नवकोटि परिशुद्ध तथा ४७ दोषों से रहित शुद्ध निर्दोष आहार ग्रहण करना आवश्यक है जिससे कषायों का उपशमन हो सके। इस प्रकार आहार, शय्या, उपधि आदि दोष रहित ग्रहण करने से भी कषायों की उपशान्ति होती है। क्रोध-विजय क्यों और कैसे ?
हाँ, तो अर्हतर्षि अद्दालक का कहना है कि जिस प्रकार कषायमुक्ति के लिए मैंने यह मार्ग ग्रहण किया है, उसी मार्ग को दूसरे साधक भी ग्रहण करें । अतः इसी सन्दर्भ में क्रोधविजय के बारे में वे कहते हैं
अण्णाण - विप्पमूढप्पा पच्चुप्पण्णाभिधारए। को किच्चा महाबाणं अप्पा बिंधइ अप्पकं ।।१।। मण्णे बाणेण विद्ध' तु भवमेक्कं विणिज्जति ।
कोध-बाणण विखे तु णिज्जती भवसंतति ॥२॥ अर्थात्-अज्ञान से घिरा हुआ मूढ़ आत्मा केवल वर्तमान को ही देखता है । वह क्रोध को महाबाण बनाकर उसके द्वारा अपने आपको बींध डालता है ॥१॥