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२०४ अमरदीप इसलिए वह मौत की मधुरता से अपरिचित होने के कारण मुसीबत से घबराकर मौत चाहता है। आराम में जीवन की चाह और संकट में मौत की चाह, यह कायर की दीन की भाषा है । जीवन की बहुत बड़ी हार है यह । सच्चा साधक न सुख में जीने का लोभ करता है और न दुःख में मौत मांगता है। यदि उसे मृत्यु में लक्ष्य की सिद्धि दिखाई देती है तो वह हंसते हंसते मृत्यु का भी वरण कर लेगा। इस प्रकार से मृत्यु का यथार्थ वरण ही जीवन का चरम विकास है। मृत्यु विचारक मनुष्य की विवशता नहीं, एक कला भी है। यह ठीक है कि जब तक बन सके मृत्यु से बचे रहना और शरीर रखकर धर्मपालन करना जीवन का सत्पुरुषार्थ है, किन्तु समय आने पर लक्ष्यसिद्धि के लिए पूर्ण समाधिपूर्वक मृत्यु की गोद में सो जाना भी साधक का महान् पराक्रम है।
जिस समय अज्ञानतावश लोक का विरोध हो, प्रहार हो, उस समय भिक्षु उस जनता को भावरोग से ग्रस्त समझकर उसका प्रतीकार न करे । वह शरीर और शरीर से सम्बन्धित सभी सजीव-निर्जीव वस्तुओं के प्रति ममत्वरहित, तथा अपनी कठोर साधना के अहंकार से रहित होकर रहे, वह स्वार्थी जनता द्वारा दिये गये इन्द्रियों के विषयभोगों के प्रति भी अनासक्त एवं निःस्पृह रहे । संसार आतुर है, नाना प्रकार की स्वार्थ आदि की व्याधियों से ग्रस्त है । वह अपने स्वार्थ के पीछे भाग रहा है । इन्द्रियों के भोग, शरीर के रोग एवं मानसिक आधि-व्याधियाँ ये सब उसी आतुरता के कारण हैं । अतः साधक सुख-सुविधाओं एवं विषयभोगों से निःस्पृह रहे। क्षणिक तुष्टि के पीछे आने वाली संकटों की बाढ़ कितनी अशान्ति लाती है ? इस बात का गम्भीरता से विचार करे और जनमानस की उस अशान्ति में भी साधक प्रेरणा के बीज खोजे तथा आतुरता का परित्याग कर अहंकारममकार से रहित हो, जितेन्द्रिय बने । सुख की नींद सोने वाले साधक की योग्यता
ऐसे स्थितप्रज्ञ जितेन्द्रिय साधक का जीवन कैसा होता है ? इसे अन्तिम दो गाथाओं द्वारा अर्हतर्षि कहते हैं
पंच - महन्वय - जुत्ते अकसाये जितिदिये । से हु दंते सुहं सुयति, णिरुवसग्गे य जीवति ॥५॥ जे ण लुब्भति कामेहि, छिण्णसोते अणासवे ।
सव्व-दुक्ख-पहीणो उ सिद्ध भवति गोरए ॥६।। अर्थात्-जो पंचमहावतों से युक्त है, कषायरहित और जितेन्द्रिय है,