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अमरदीप
साहहिं संगम कुज्जा, साहूहिं चेव संथव । धम्माधम्मं च साहि, सदा कुन्विज्ज पंडिए ॥७।। इहेव कित्ति पाउणति पेच्चा गच्छइ सोग्गति । तम्हा साहूहि संसरिंग सदा कुविज पंडिए ।।८।।
साधक साधु पुरुषों का संगम करे और साधु पुरुषों का ही संस्तव करे। प्रज्ञाशील पुरुष धर्म और अधर्म की चर्चा भी साधु पुरुषों के साथ ही करे ॥७॥
साधु पुरुषों के संग से आत्मा यहाँ पर यश प्राप्त करता है और परलोक में भी शुभगति प्राप्त होती है ॥८॥
जीवन के कलाकार साधकों के साथ सम्पर्क करने से जीवन निर्माण की प्रेरणा मिलती है ; जबकि अनाड़ी लोगों के संसर्ग से जीवन को पतन की दिशा मिलती है। जीवन का सुन्दर साथी मानव को ऊर्ध्वमुखी बनाता है। पानी नीम की जड़ों में पहुंचता है तो कटुरूप लेता है, किन्तु गन्ने के खेत में पहुंचता है तो मधुररस बन जाता है । स्वाति नक्षत्र की बूंदें सीप के मुख में पड़कर मोती बन जाती हैं, किन्तु वे ही बूदें साँप के मुह में पड़कर विष बनती हैं। साथी की अच्छाई और बुराई जीवन में भी अच्छाई और बुराई लाती है।
यद्यपि व्यक्ति के उत्थान और पतन का दायित्व उसी पर ही है। उसका उपादान शुद्ध होगा तो पतन का निमित्त मिलने पर भी पतन नहीं होगा। परन्तु जब तक वह छद्मस्थ-अपूर्ण है, जीवनधारा का उसे सार्वभौम ज्ञान नहीं, उपादान को परिपक्वता में अभी सन्देह है, तब तक अशुभ निमित्तों से बचना आवश्यक हो जाता है। कहा भी है
परिचरितव्याः सन्तो यद्यपि कथयन्ति न सदुपदेशम् । यास्तेषां स्वरकथास्ता एव भवन्ति शास्त्राणि ॥
साधक सदैव कुत्सित पुरुषों के संग से बचकर सज्जनों का ही साहचर्य करे, भले ही वे उपदेश न दें क्योंकि सज्जनों का संग ही एवं उनके मुंह से अनायास निकलती हुई बातें ही शास्त्र होती हैं । अतः धर्माधर्म की चर्चा भी साधु पुरुषों के साथ ही करना चाहिए, क्योंकि अज्ञजनों के साथ की गई चर्चा में कभी तत्त्वज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता, क्योंकि उनसे वितण्डावाद, अपशब्द एवं गालियों का प्रवाह ही प्रायः मिलता है। अतः इनसे दूर