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१६० अमरदीप
दुर्गुण - दोष तो बहुत शीघ्र ग्रहण कर लेता है। यह हुआ संसर्गजन्य दोष का निरूपण । अब लीजिए संसर्गजन्य गुण का निरूपण - सुमेरु पर्वत सारा का सारा सोने का है । उसके निकट किसी भी रंग का पक्षी पहुंचता है तो उसकी प्रभा से वह पक्षी भी स्वर्ण- प्रभ ( सुनहरे रंग का हो जाता है ।
कल्याण-मित्र की आवश्यकता पर बल देते हुए अर्हतषि कहते हैं कि आत्म-विकास तक पहुंचने के दो साधन हैं - एक बाह्य है, दूसरा है- आभ्यन्तर । बाह्य साधन में प्रबल निमित्त है- कल्याणमित्र । और आभ्यन्तरं साधन हैं -- सम्यक्त्व एवं अहिंसा सत्यादि का सम्यक् अवबोध । कुशल और योग्य साथी जीवन की नैया को तीर पर ले जाने में सहायक होता है। सम्यक् विचार-आचार धारा का अनुभवी कल्याणमित्र अपने साथी को वस्तु तत्त्व का बोध भी करा देता है और पर्याप्त साहस, धैर्य एवं बल भी देता है । वह कल्याणमित्र ही था, जिसके संसर्ग से मिथिलानगरी के राजा संजय ने विजय प्राप्त की थी, फिर चिरकाल तक राज्य सुख भोगा बाद में उसी कल्याणमित्र की सत्प्रेरणा से सर्वविरति मार्ग में प्रविष्ट होकर देवलोक में पहुंचा । अतः शरीर के लिए जैसे भोजन आवश्यक एवं कल्याणप्रद है, वैसे ही आत्मा के लिए कल्याणमित्र भी आवश्यक एवं कल्याणप्रद है । जीवन के दो बहुमूल्य भाव मित्र
अब अर्हतषि अरुण जीवन को उत्तम गुणरूपी धन से सुसज्जित करने के लिए दो गाथाओं में निर्देश दे रहे हैं
खइणं पमाणं वत्तं च देज्जा अज्जति जो धणं । सद्धम्म वक्क दाणं तु अक्खयं अमतं मतं ॥ ६ ॥
पुण्णं तित्थं उवागम्म, पेच्चा भोच्चा हितं फलं । सद्धम्म-व रि-दोषेणं खिष्पं सुज्झति माणसं ॥ १०॥
अर्थात् - जो मनुष्य धन एकत्रित करता है, काल उसके लिए संदेश देता है कि यह मर्यादित है और एक दिन नष्ट होने वाला है, जबकि सद्धर्म वचन का दान तो अक्षय ( कभी क्षय नहीं होने वाला) है और अमृततुल्य माना गया है ।
जिस पुण्य तीर्थ को पाकर परलोक में तुम जिस फल को भोगोगे, उस फल की प्रसव भूमि हृदय है जो सद्धर्म का जल देने से शीघ्र शुद्ध होता है ॥ १०॥
अज्ञानीजन बहिर्दृष्टि - बहिरात्मा होते हैं । वे धन इसलिए एकत्रित करते हैं कि यह हमारी रक्षा करेगा, सुख देगा, जीवन पर्यन्त हमारे साथ