________________
अज्ञ का विरोध : प्राज्ञ का विनोद २०१ विरोधियों के प्राणान्तक प्रहार को समभाव से, धैर्य और शान्ति से उनके प्रति द्वेष, रोष और दुर्भावना से रहित होकर सहने की यह साधना ही साधक को परमात्मपद तक पहुँचा देती है।
बौद्ध साहित्य में एक 'श्रमण' की कथा मिलती है। तथागत् बुद्ध का एक शिष्य था। उसका नाम था 'पूर्णश्रमण'। जब वह सुमेरूपरांत नामक अनार्य देश में धर्मप्रचार के लिए जाने लगा तो करुणावतार बुद्ध ने पूछा'वहाँ अनार्य लोग तुम्हें गाली देंगे और तुम्हारा अपमान करेंगे तो क्या करोगे?'
पूर्ण-'मैं समझूगा कि ये तो केवल गालियाँ ही देते हैं, दण्ड आदि से प्रहार तो नहीं करते।'
बुद्ध-'अगर उन्होंने डंडों से मारा-पीटा तो ?'
पूर्ण-- "मैं समझूगा, इन्होंने डंडों से ही पीटा है, शस्त्र से शरीर पर आघात तो नहीं किया। . बुद्ध-'यदि किसी ने तुम्हारे शरीर पर शस्त्र से प्रहार किया तो ?'
पूर्ण-'मैं समझ गा कि इन्होंने मेरे प्राण तो नहीं लिये, केवल शस्त्र से प्रहार किया है।' — बुद्ध-'यदि वे प्राण लेने पर उतारू हो गये तो ?'
पूर्ण-'मैं समझगा कि यह शरीर नाशवान् था, एक न एक दिन तो नष्ट होना ही था। मेरी आत्मा तो अजर-अमर अविनाशी है, उसको तो इन्होंने कोई क्षति नहीं पहुँचाई । मेरा आत्मधर्म तो नष्ट नहीं किया।'
दुर्जनों पर सज्जनता की विजय की यह कितनी प्रेरणात्मक बोधकथा है।
प्रतिक्षण साधक आनन्दित रहे ऋषिगिरि अर्हतर्षि समभावी साधक को लक्ष्य करके विरोधों और अवरोधों के बीच में आनन्दित रहने की कला सिखाते हुए कहते हैं
इसिगिरिणा माहण-परिव्वायएणं अरहता इसिणा बुइतं
जेण केणई उवाएणं पंडिओ मोइज्ज अप्पकं । बालेण उदीरिता दोसा, तं पि तस्स हिजं भवे ॥१॥ अप्पडिण्णभावाओ उत्तरं तु ण विज्जति ।
सई कुव्वइ वेसे णो, अपडिणे इह माहणे ॥२॥ अर्थात्-ऋषिगिरि नामक माहन (ब्राह्मण) परिव्राजक अर्हतर्षि बोले—(ऐसे विरोधों के अवसर पर) पण्डित साधक जिस किसी भी उपाय