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अज्ञ का विरोध : प्राज्ञ का विनोद
शूलों से प्यार, वहीं फूलों की बहार धर्मप्रेमी श्रोताजनो ! मनुष्य का साधनामय जीवन उतार-चढ़ाव का जीवन है। उतार-चढ़ाव के बिना साधना में गति-प्रगति हो नहीं सकती। एक सरीखा जीवन या तो आलसियों का होता है या फिर स्थितिस्थापकों का होता है। जिसे अपनी साधना में गति-प्रगति करनी होती है, समाज में क्रान्ति करनी होती है, उसे जीवन के हर क्षेत्र में कड़वे-मीठे घूट मिलते हैं। बल्कि दुनिया के हर विचारक, क्रान्तिकारक अथवा साधक को पहले शूल मिलते हैं जब वह शूलों को प्यार से अपनाता है तो दुनिया उस पर फूल बरसाती है। किन्तु जो शूलों को देखकर घबरा जाता है, दुनिया की आलोचनाओं से जिसका धैर्य समाप्त हो जाता है और जिसकी अपने निर्धारित कार्य से आस्था हिल जाती है, वह कभी सफलता के दर्शन नहीं कर सकता। सफलता कायरों का कभी साथ नहीं करती। दुनिया की आलोचना से घबराकर साधक को अपनी कर्तव्यनिष्ठा से अलग नहीं होना चाहिए। दुनिया की आँखों से अपना नाप-तौल नहीं करना चाहिए, अपितु विवेक की आँखों से प्रत्येक कार्य में निहित सत्य को ढूढ़ना चाहिए। शास्त्र में कहा गया है -सच्चम्मि धीइं कुव्वहा' 'सत्य में बुद्धि या धृति करना चाहिए।' मेकियावेली नामक पाश्चात्य विचारक ने ठीक ही कहा है
Men in general judge more from appearances than from reality. All men have eyes, but few have the gift of penetration.
साधारणतः मनुष्य सत्य की अपेक्षा बाहरी आकार से ही अनुमान लगाते हैं । आँखें तो सभी के पास होती हैं, किन्तु विवेक की आँखों का वरदान किसी-किसी को मिलता है।