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११२ | अमरदीप
___ अर्थात्-स्वधर्म में ही रत रहकर मृत्यु पाना श्रेयस्कर है, किन्तु परधर्म में प्रवृत्त होना भयावह है।
इसका तात्पर्य यह है कि जैसे एक ब्राह्मण है, वह अपने गुण एवं नैतिक कर्तव्य को छोड़कर क्षत्रिय धर्म अपना ले, तो वह क्षत्रिय धर्म से अनभिज्ञ एवं अनभ्यस्त होने के कारण उसमें सफल नहीं हो सकेगा, और समाज की व्यवस्था को भा बिगाड़ेगा। वह 'इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः' हो जायगा। न तो वह ब्राह्मणधर्म का पालन कर पायेगा, और न क्षत्रियधर्म का।
इसी प्रकार एक साधु है, वह अपने साधुधर्म के नैतिक कर्तव्य को छोड़कर गृहस्थधर्म अपना ले, तो उसमें अनभिज्ञ होने के कारण सफल न हो सकेगा, साधुधर्म से तो भ्रष्ट हो ही जायगा।
हाँ, यह बात दूसरी है कि कोई व्यक्ति आज गृहस्थधर्म का पालन कर रहा है, परन्तु बाद में सर्वविरत होकर साधुधर्म को अपना ले। अथवा कोई ब्राह्मण के घर में जन्मा हुआ व्यक्ति क्षत्रिय वर्ण के नैतिक कर्तव्य को अपनाकर क्षत्रियवर्ण का बन जाए। इसमें प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है। अर्हतर्षि आगे इसी विषय का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं
रायाणो वणिया जागे, महणा सत्थजीविणो। अंधेण जुगणद्ध वि-पल्लत्थे उत्तराधरे ॥२। आरूढा रायरहं, अडणीए जुद्धमारभे।
सधामाइं पणिन्ति , विवेता बंभपालने ॥३॥ 'राजागण और वणिक लोग यदि यज्ञ-याग में प्रवृत्त हों, और ब्राह्मण शस्त्रजीवी हों, तो ऐसा लगता है मानो वे अंधे से जुड़े हुए हों' ॥२॥
'कुछ ब्राह्मण लोग राजपथ पर चढ़कर सेना के साथ युद्ध में प्रवृत्त होते हैं, किन्तु ब्रह्मवृत्ति के पालन में विबेक रखने वाले (ब्राह्मण) (ऐसी हिंसात्मक वृत्ति के लिए) अपने घरों को बन्द कर लेते हैं ॥३॥
वस्तुतः राजा क्षात्रवृत्ति वाला होता है, उसमें वीरता, धीरता, न्यायप्रियता एवं तेजस्विता होती है, उसका कार्य है-समाज और राष्ट्र की रक्षा करना। वैश्य का कार्य है- कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य । समाज को जीवननिर्वाह हेतु आवश्यक वस्तुएं मुहैया करना यही वैश्यवृत्ति है। शास्त्र का अध्ययन-अध्यापन करना, ब्राह्मण का कार्य है। ब्राह्मण अहिंसा, तप और संयम की वृत्ति वाला होता है।
इस प्रकार की चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को मनीषियों ने नैतिक कर्तव्य और पृथक्-पृथक योग्यतावृत्ति और विशेषता के अनुरूप धर्म का रूप दिया।