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अमरदीप
अर्थात्–‘चक्ष ु के द्वारा रूप को ग्रहण करके साधक मनोज्ञ में अनुरुक्त न हो, और अमनोज्ञ पर प्रद्वेष न करे । इस प्रकार मनोज्ञ में आसक्त और अमनोज्ञ में प्रद्वेष न रखता हुआ साधक अविरोधी रूप में जागृत रहकर कर्मों के स्रोत को रोक सकता है ।'
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आँख शरीर का अमूल्य और महत्वपूर्ण अंग है । जो बात वाणी नहीं प्रकट कर सकती, उसे आँखें अनायास ही बता देती हैं । वे करुणा का भाव आते ही बरस पड़ती हैं, क्रोध का भाव आते ही लाल हो जाती हैं । आनन्द का अनुभव होते ही चमक उठती हैं, और लज्जाजनक बात होते ही झुक जाती हैं । आँखों से ग्रहण किये हुए मनोज्ञ - अमनोज्ञ रूप का मन पर शीघ्र प्रभाव पड़ता है । विषय विकारों को उत्तेजना देने वाले नाटक, सिनेमा या नृत्य आदि देखने पर मन में शीघ्र ही विकार आता है, उससे अशुभकर्म का बन्ध होता है, तथा महापुरुषों तथा त्यागी सत्पुरुषों के दर्शन करने पर मन
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विकार नष्ट होते हैं । अतः साधक मनोज्ञ रूप को देखकर रागभाव और अमनोज्ञ रूप को देखकर द्वेषभाव न लाए । अपने चित्त को समस्थिति में रखे । जो रूप उसके साधनापथ में अविरोधी है, उसमें साधक सदैव जागृत रहे । देव और गुरु के दर्शन, ऐर्यापथ, स्वाध्याय आदि में चक्षु का उपयोग आवश्यक है, वह साधनापथ में अविरोधी है । अतः उसमें साधक सदैव जागृत रहे ।
घ्राणेन्द्रिय-विजय का मार्गदर्शन
(३) तीसरी इन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय है । नासिका के द्वारा मनुष्य अच्छी और बुरी गन्ध को सूंघता है । सुगन्ध और दुर्गन्ध का प्रसंग आने पर साधक क्या करे ? इसके लिए अर्हतर्षि मार्गदर्शन दे रहे हैं
गंधं घाणमुवादाय मणुण्ण वा वि पावगं । ममि नरज्जेज्जा, ण पदुसेज्जा हि पावए ||७|| ममि अरज्जते, अवुट्ठे इयरम्मिय ।
असुत्ते अविरोधीणं, एवं सोए विहिज्जति ॥ ८ ॥
अर्थात् - नासिका के द्वारा मनोज्ञ या अमनोज्ञ गन्ध ( सुगन्ध या दुर्गन्ध) को ग्रहण करके साधक सुगन्ध में आसक्ति न रखे और दुर्गन्ध पर प्रद्व ेष न करे । इस प्रकार मनोज्ञ गन्ध में आसक्ति और अमनोज्ञ पर द्वेष न रखता हुआ साधक अविरोधी गन्ध पर सजग रहे । इस तरह साधक कर्मों के स्रोत को रोक सकता है ।