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१६८ अमरदीप
(४) यह लोक अनादि अनन्त है और पारिणामिक भाव में स्थित है; दूसरी अपेक्षा से - यह लोक अपने स्वभाव में स्थित है ।
(५) जो आलोकित होता है, उसे लोक कहते हैं । (६) गति, जीव और पुद्गलों की बताई गईं हैं ।
(७) जीव और पुद्गलों की गति चार प्रकार की है - द्रव्य से गति, क्षेत्र से गति, काल से गति और भाव से गति ।
(८) यह गति भाव आदि रहित तथा अन्तरहित है ।
(e) जिससे गमन किया जाता है, उसे गति कहते हैं । जीव ऊर्ध्वगामी होते हैं और पुद्गल होते हैं - अधोगामी । जीवों की गति कर्म - प्रभावित है और पुद्गलों की गति परिणाम प्रभावित है । जीवों की गति कर्म-फल के विपाक से होती है, जबकि पुद्गलों की गति परिणाम के विपाक से होती है । लोक और गति से सम्बन्धित समाधान
इस अध्ययन में अर्हतर्षि ने लोक और गति के सम्बन्ध में प्रश्न उठा कर मानव की जिज्ञासा का समाधान किया है। पांच प्रश्न लोक, उसके स्वरूप और उसकी विराटता के सम्बन्ध में और शेष चार हैं गति के सम्बन्ध में ।
पहले प्रश्न का उत्तर है— जड़ (अजीव ) और चैतन्य (जीव ) की यह विराट् सृष्टि ही लोक है । यों तो लोक पंचास्तिकायात्मक है। अर्थात् - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय । इन पाँच अस्तिकायों की अर्थसृष्टि लोक है। एक अपेक्षा से इन पाँच द्रव्यों सहित काल द्रव्य को मिलाकर षड्द्रव्यात्मक भी लोक कहलाता है ।
दूसरे प्रश्न का उत्तर है— लोक के चार प्रकार हैं- द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक । भगवती सूत्र ( शतक १, उ. १०) में इस सम्बन्ध में काफी विस्तार से चर्चा की गई है । संक्षेप में - द्रव्यलोक एक और सान्त है | क्षेत्रलोक (क्षेत्र की दृष्टि से लोक ) की लम्बाई और चौड़ाई असंख्य कोटाकोटी योजनों की है। इसकी परिधि भी असंख्य कोटाकोटी योजनों की है, फिर भी सान्त है, अनन्त नहीं । काल (काल की दृष्टि से ) लोक अनादि-अनन्त है । अर्थात् - काल की अपेक्षा से यह लोक कभी नहीं था, या कभी नहीं रहेगा, ऐसी बात नहीं है। लोक था, है और रहेंगा। कालकृत लोक ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षत, अक्षय, अव्यय और नित्य है । इसी प्रकार भावलोक अनन्त वर्णपर्याय, अनन्त - गन्ध-रस - स्पर्श - पर्याय रूप है । तथा अंनत