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इन्द्रिय - निग्रह का सरल मार्ग १५१
वैसे तो सुगन्ध सभी को प्रिय लगती है, परन्तु दुर्गन्ध का प्रसंग आने पर घबराए नहीं । पुद्गलों का स्वभाव ही ऐसा है, इस प्रकार चिन्तन करके समभाव रखे ।
कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो इन बातों की ओर ध्यान देकर दुर्गन्ध को भी सुगन्ध मान लेते हैं और उसी में अपने आपको रमा लेते हैं । प्याज, लहसुन, मांस, मदिरा आदि का सेवन करने वाले उन वस्तुओं की दुर्गन्ध को भी सुगन्ध मान लेते हैं । मदिरा पीने वाला मद्य की गन्ध पाकर मस्त हो जाता है ।
(४) चौथी इन्द्रिय है - जीभ । जिह्वा के द्वारा दो काम होते हैंचखना और बोलना । मनुष्य जो कुछ भी खाता है उसका अनुभव जिह्वा करती है । वह यह नहीं देखती कि अमुक वस्तु पेट में जाकर लाभ पहुंचायेगी या हानि ? जीभ की लोलुपता के कारण अनेक व्यक्ति रोगों के शिकार हो जाते हैं, कभी-कभी तो वे अपने प्राणों से हाथ धो बैठते हैं ।
रसनेन्द्रियविजय का मार्गदर्शन
'जिह्वा पर मधुर या कटु रस आए उस समय साधक किस प्रकार का विवेक रखे ? इसके लिए अर्हतर्षि मार्गदर्शन देते हैं
रसं जिन्भमुवादाय मणुण्णं वा वि पावगं । मणुष्णंमिण रज्जेज्जा, ण पदुस्सेज्जा हि पावए ॥ ६ ॥ मण्णंम अरज्जते, अट्ठे इयरम्मि य । असुत्त अविरोधीणं एवं सोए पिहिज्जति ॥ १० ॥
अर्थात् - जीभ मनोज्ञ (मधुर) या अमनोज्ञ ( कटु ) रस का ग्रहण करती है; किन्तु साधक मनोज्ञ रस में आसक्त न हो और अमनोज्ञ रस पर द्वेष न
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करे । अर्थात् मनोज्ञ रस में आसक्ति और अमनोज्ञ रस पर द्व ेष न रखता हुआ साधक अविरोधी रस पर सजग रहे । इस प्रकार वह कर्मस्रोत को रोक सकता है ।
जीभ का काम चखना हैं, उसमें यह विवेक नहीं है कि मनोज्ञ या अमनोज्ञ वस्तु मिलने पर क्या करना चाहिए ? यह तो साधक पर निर्भर है कि वह दोनों ही स्थितियों में समभाव रखे ।
आज जिह्वा-लोलुपता के कारण मनुष्य यह विवेक भूल गया है कि क्या खाना चाहिए? कितनी मात्रा में खाना चाहिए ? भक्ष्य - अभक्ष्य का