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१६४ अमरदीप उसके मन को प्रभावित करते रहते हैं; किन्तु तथ्य यह है कि अमुक समय और अमुक स्थान में पवित्रता की कल्पना मनुष्य स्वयं करता है। यही कारण है कि एक सम्प्रदाय वालों की दृष्टि में जो दिन और जो स्थान पवित्र माना जाता है, दूसरे सम्प्रदाय वालों की दृष्टि से वह समय और स्थान पवित्र नहीं माना जाता । अर्थात्- उस समय और स्थान की पवित्रता सबके दिलों में पवित्रता का संचार नहीं करती। मनुष्य की मनोभावना ही किसी दिन या किसी स्थान को पवित्रता का बाना पहनाती है।
हाँ, तो स्थान और समय की पवित्रता व्यक्ति के मन को कदाचित प्रेरित करदे, किन्तु किसी अपवित्र कार्य को पवित्र और पवित्र कार्य को अपवित्र नहीं बना सकती। यदि एक टी. वी. का रोगी स्वर्णमहल में पहुंच जायेगा, तो भी उसे शान्ति नहीं मिल सकेगी; शान्ति तो उसे तभी मिलेगी, जब वह रोगमुक्त होगा। रोगमुक्ति भी तभी होगी, जब वह व्यक्ति असातावेदनीय कर्म से अमुक अंश में मुक्त होगा।
निष्कर्ष यह है कि मिश्री की डली को कोई गंगा के तट पर खाए, चाहे सूने जंगल में खाए, तब भी मीठी ही लगेगी, स्थान तथा समय बदल जाने से उसकी मिठास नहीं बदल जायेगी। शुभ कर्म सर्वत्र शुभ रहेंगे। देश और काल उन्हें शुभ से अशुभ में या अशुभ से शुभ में परिवर्तन करने में समर्थ नहीं हैं। ध्वनि की प्रतिध्वनि
विश्व व्यवस्था ध्वनि-प्रतिध्वनि के सिद्धान्त पर आधारित है। इसी सिद्धान्त को अर्हतर्षि कर्म सिद्धान्त पर घटित करते हुए कहते हैं
कल्लाणं ति भणंतस्स, कल्लाणाए पडिस्सुया । पावकं ति भणंतस्स, पावयाए पडिस्सुया ॥७॥ पडिस्सुया-सरिसं कम्म, णच्चा भिक्खू सुभासुभं ।
तं कम्मं न सेवेज्जा, जेणं भवति णारए ॥८॥ 'कल्याण हो', इस प्रकार बोलने वाला बदले में पुन: 'कल्याण हो' सुनता है, और 'पाप (बुरा) हो', इस प्रकार कहने वाला बदले में 'पाप हो' इसी प्रकार की प्रतिध्वनि सुनता है ॥७॥
अतः साधक कम को प्रतिश्रु ति (प्रतिध्वनि) के सदृश जाने तथा उन कर्मों का सेवन न करे, जिनसे आत्मा नारकरूप प्राप्त करता है ।।८।।
साधक प्रतिध्वनि के सिद्धान्त को जीवन में स्थान न दे और उन कर्मों का परित्याग करे, जिनसे आत्मा को नरक में जाना पड़ता है । नारक