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१५४ अमरदीप
दुईतेहिदिएहि अप्पा दुप्पह हीरए बला । दुईतेहिं तुरंग हिं सारही वा महापहे ॥१४॥ इंदिएहिं सुदंतेहि, ण संचरति गोयरं ।
विधेयेहिं तुरंगेहिं सारहि ध्वा व संजए ॥१५॥ अर्थात्-जैसे, दुर्दान्त घोड़े सारथि को महापथ (विकट पथ) में ले जाते हैं, वैसे ही दुर्दान्त बनी हुई इन्द्रियाँ आत्मा को वलपूर्वक दुष्पथ में ले जाती हैं। मुनि के द्वारा संयमित की हुई इन्द्रियाँ विषय की ओर वैसे ही नहीं जातो, जैसे कि सुशिक्षित अश्व सारथि को उत्पथ में नहीं ले जाते।
जिस साधक की इन्द्रियाँ संयमित एवं सुशिक्षित हैं, तो वे उसे सदैव शान्ति के पथ में ले जाएँगी। यदि साधक इन्द्रियों का गुलाम है तो वे उस पर शासन करेंगी और साधक को अपने इशारों पर चलने के लिए बाध्य कर देंगी। इसके लिए अर्हषि ने अश्व का रूपक देकर समझाया है। अगर अश्व अशिक्षित हैं तो वे सारथि को गलत मार्ग पर ले जाएँगे। घोड़े की लगाम आदमी के हाथ में नहीं होती, तब आदमी की लगाम घोड़े के हाथ में आ जाती है और फिर उसे घोड़ों के इशारों पर चलने को बाध्य होना पड़ता है। कुशल सारथि के शिक्षित घोड़े उसके इशारों पर चलते हैं और वह शीघ्र ही अपने लक्ष्य पर पहुंच जाता है । साधक को यदि अपने लक्ष्य पर पहुंचना है तो उसे इन्द्रियरूपी घोड़ों को सुशिक्षित और संयमित बनाने का अभ्यास करना होगा। इन्द्रियविजय से पूर्व मन के साधो
इन्द्रियों को अपने वश में करने या सुशिक्षित करने के लिए साधक को सर्वप्रथम क्या करना चाहिए ? इसके लिए अर्हतर्षि वर्द्धमान मार्गदर्शन देते हैं
पुव्वं मणं जिणित्ताणं, वारे विसयगोयरं ।
विवेयं गयमारूढो, सूरो वा गहितायुधो ॥१६।। अर्थात-साधक (इन्द्रिय-विजय से) पहले मन पर विजय पाए। फिर विवेकरूपी हाथी पर आरूढ़ होकर शस्त्रसज्ज योद्धा की तरह इन्द्रियों को विषय की ओर जाने से रोके।
अभिप्राय यह है कि जो साधक इन्द्रियों पर विजय पाना चाहता है, उसे पहले मन पर विजय पाना होगा। क्योंकि मन ही इन्द्रियों का शासक है, वही शक्ति का केन्द्र है, इन्द्रियों को विषयों की ओर वही प्रेरित करता है, अन्यथा इन्द्रियाँ तो जड़ हैं। वेग से घूमते हुए पंखे को रोकना है तो पहले