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स्वधर्म और परधर्म का दायरा
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क्षत्रिय हैं, वे लोगों को युद्ध (अकारण ही युद्ध) की शिक्षा देते हैं। अर्थात्हिंसा का प्रसार करते हैं, हिंसा का उपदेश देते हैं।
____ तात्पर्य यह है कि ब्राह्मण जब अपना नीतियुक्त धर्म का दायरा छोड़कर दूसरे वर्ण के धर्म को अपनाने लगता है, तब नीति-धर्म नष्ट होने से समाज में टकराहट, प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, द्वेष, वैर-विरोध, युद्ध आदि हिंसात्मक प्रवृत्तियाँ पनपती हैं। - भगवान् महावीर ने-..
'कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ।' कहकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र, चारों ही वर्गों को अपनेअपने नैतिक कर्तव्य के कारण ब्राह्मण आदि कहा है। इसी प्रकार गीता (अ. ४/१३) में कहा है
'चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुण-कर्म विभागशः।' • अलग-अलग गुण (योग्यता या विशेषता) और कर्म (नैतिक कर्तव्य) का विभाग करके मैंने चार वर्ण बनाए हैं।
इसी दृष्टि से चारों वर्गों के नैतिक कर्तव्ययुक्त धर्म का उल्लंघन करने वाले स्वधर्म को छोड़कर क्षत्रियधर्मी शस्त्रजीवी एवं युद्धशिक्षक बनने वाले ब्राह्मणों पर कटाक्ष करते हैं। वस्तुतः ब्राह्मणों के नैतिक कर्तव्ययुक्त धर्म का दायरा है - अध्ययन, अध्यापन एवं तत्त्व चिन्तन करना । महाभारत में कहा है
तपः श्र तं च योनिश्च ब्राह्मण्ये कारणं परम् ।
तपः श्रु ताभ्यां यो हीनो, जाति ब्राह्मण एव सः ॥ अर्थात् -- तपस्या और शास्त्रज्ञान इन दोनों का उत्पत्तिस्थान ब्राह्मणत्व का परम कारण है । जो ब्राह्मण तप और श्रत से हीन है, वह जाति (जन्म) से ही ब्राह्मण है, (गुण-कर्म से नहीं।)
. जिसकी जो वत्ति है, वही उसका नैतिक कर्तव्ययुक्त धर्म है। उक्त धर्मानुसार जो कार्य करता है, वह उसमें सफल और विशेषज्ञ होता है। ब्राह्मणवृत्ति वाला ही ब्राह्मण है। वह जब अपने वर्णधर्म का उल्लंघन करके ब्राह्मण कुल में जन्मे परशुराम की तरह क्षत्रिय के नैतिक कर्तव्य-धर्म में प्रवृत्त होता है, तब वह स्वधर्म को छोड़कर परधर्म में प्रवृत्त होता है। गीता (अ. ३/३५) में भी यही कहा गया है--
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।