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१४० अमरदीप - आत्मन् ! दुनिया की कोई भी बाहरी ताकत न तो तुझे सुख दे सकती है और न ही किसी दूसरे में इतना साहस है कि वह तुम्हें दुःख दे सके।
तब फिर यह प्रश्न होता है, कि जब यह निश्चित सिद्धान्त है कि जीव स्वयं अपने भले-बुरे या सुख दुःख के लिए उत्तरदायी है, तब वह स्वयं क्यों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना चाहेगा ? स्वयं क्यों दुःख मोल लेगा? इसका समाधान १४वीं गाथा में किया गया है, जीव चाहे या न चाहे, पाप या अपराध करेगा, तो उसका दण्ड उसे मिलेगा ही। मनुष्य जिस समय काम आदि पाप करता है, उस समय मोहवश उसे कुछ भी भान नहीं रहता कि मैं जो कुछ करता हूँ, उसका परिणाम कितना भयंकर आयेगा ? अपने पतन के लिए मोहवश स्वयं गड्ढा खोदता है। जैसे एक भौंरा कठोरतम काष्ठ को छेद सकता है, परन्तु कोमल कमलकोष में वह बंध जाता है, उसे छेदन करने की शक्ति होने पर भी मोहवश उसकी शक्ति कुण्ठित हो जाती है । मोह के धागों ने जैसे उसकी शक्ति को मजबूती से बांध रखा है, वैसे ही मोह के तारों से बंधे मानव की शक्ति कुण्ठित हो जाती है। मोहवश वह स्वयं को पतन के गड्ढे में डाल देता है । मोह ही वह बन्धरूपी मुद्गर है, जिसे हाथ में लेकर संसार के रंगमंच पर प्राणी अनन्तकाल से नृत्य करता
आ रहा है। युग बीत गये, पर अभी तक उसका यह नृत्य समाप्त नहीं हुआ।
महाकवि सूरदासजी, जिन्होंने आँख वालों को दृष्टि दी है, इसी नृत्य की एक झांकी अपने भजन में दे रहे हैं
अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल । काम क्रोध का पहरि चोलना, कण्ठ विषय की माल ॥
इसका भावार्थ यही है कि प्रभो ! मैं वदन पर काम क्रोध का चोला और कण्ठ में विषयों की माला पहन कर इस दुनिया के रंगमंच पर बहुत नाच चुका हूँ। अब मैं विश्रान्ति चाहता हूं, इस नृत्य से।
सचमुच, मोह-बन्धनवश ही मनुष्य कामचेष्टा करके अपना ही आत्मघाती बनकर दुःख पाता है।
ययाति राजा अत्यन्त बुद्धिमान् था, मगर वह काम का कीड़ा था। बूढ़ा हो जाने पर भी उसकी कामलिप्सा नहीं मिटी । वह इससे बहुत ही खिन्न और उदास रहने लगा । किसी ने उसे एक सुझाव दिया कि यदि आपका बुढ़ापा और कोई ले ले और अपनी जवानी आपको दे दे तो आप पुनः युवा हो सकते हैं, अपनी कामतृप्ति कर सकते हैं। अपने पिता की उत्कट कामलिप्सा और खिन्नता देखकर ययाति के पुत्र ने उसे अपना यौवन दे दिया। कहते हैं, कामान्ध ययाति पुनः अधिकाधिक काम-सेवन