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१३४ अमरदीप
अतः स्नेहबन्धन से विरत होने के लिये शुभध्यान द्वारा मन की शक्तियों को उस ओर से हटाकर एकमात्र ध्येय में केन्द्रित करना चाहिये । जिस प्रकार आतशी शीशे में सूर्य की किरण केन्द्रित हो जाती हैं, तो उसमें से तेज और प्रकाश के साथ चिनगारी फूटती है, इसी प्रकार मन की किरणें जब ध्येय में केन्द्रित हो जाती हैं, तो मन में तपस्तेज एवं ज्ञानप्रकाश के साथ आत्मशक्ति की ज्वाला फूट पड़ती है, जिसमें रागादि विकार और वासना आदि भस्म हो जाते हैं। तभी ध्यान, आत्मचिन्तन, मनन, अनुशीलन एवं निदिध्यासन शुद्ध और यथार्थ हो सकता है। साथ ही चित्त का भी निरोध मोहादि विकारों से हो, और वह लक्ष्य में निहित हो, और बुद्धि सतत मोक्षपथ में संलग्न रखी जाये तो कोई कारण नहीं कि साधक स्नेहबन्धन, अतिपरिचय या संसर्गदोष में पड़ सके ।
प्राचीनकाल का साधक शहरों में रहना पसन्द नहीं करता था । वह प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा, प्रशंसा और प्रशस्ति से दूर रहने हेतु शहरों से दूर वन में रहता था । भिक्षा के लिये गांव में एक बार आता और पुनः वन की शान्त, विविक्त और एकान्त भूमि में आत्म-साधना के लिये चल पड़ता था । प्रकृति का स्वच्छ वायुमण्डल भी उसकी चित्तवृत्तियों को शान्त और शुद्ध रखने में सहायक बनता था। साथ ही गृहस्थजनों का यह अल्पकालीन परिचय तथा निःस्पृह एवं निरासक्त जीवन उनके हृदय में भी सन्त के प्रति श्रद्धा के दीप जलाता था । वह हृदय की सच्ची जिज्ञासा लेकर सन्त के पास पहुंचता था और सन्त भी निस्पृहभाव से उसे आत्म-दर्शन का मार्ग बताता था ।
लोक-संसर्ग से वचन की प्रवृत्ति होती है, उससे मन व्यग्र ( चंचल या अस्थिर) होता है । चित्त की चंचलता से अनेक प्रकार के विकल्पों से मन क्षुब्ध होता है । अतः योगिजनों को लोक-संसर्ग का त्याग करना चाहिए ।
वस्तुतः लौकिकजनों के संसर्ग से चित्त की निश्चलता हो नहीं सकती । चित्त निश्चल हुए बिना जगत् से अलग अकेला होकर आत्मानुभव नहीं कर सकता । जिसकी लोक-संसर्ग में बड़प्पन पाने में रुचि है, उसे चैतन्य - साधना में रुचि कैसे हो सकती है ? जन-परिचय से मन की व्यग्रता होती है, जो केवलज्ञान को रोकती है। अतः लोकसंज्ञा तथा अतिलोक सम्पर्क छोड़कर अपने स्वभाव-स्वरूप में स्थिर होना चाहिये ।
जंगल में नहीं, आत्मा में निवास करो
किन्तु यह भी कोई निश्चित नहीं है कि जंगल, या पर्वत गुफा में रहने