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१२२ अमरदीप जितेन्द्रिय होकर सत्कर्म (अपनी मर्यादा के अनुरूप अंनिन्द्य कार्य) में प्रवत्तं होता है, उस वीतरागस्थिति-प्राप्त साधक के लिए घर (या ग्राम-नगर आदि) ही तपोवन है।
___ संत विनोबा ने इस सम्बन्ध मे सुन्दर चिन्तन दिया है कि जिस व्यक्ति ने घर-बार आदि से संन्यास तो ले लिया, परन्तु उसमें संन्यास की वृत्ति नहीं आई, तो वह वन में जाकर भी दुगुना घर जमाने की कोशिश करेगा।
अतः मूल वस्तु मोह, ममत्व एवं आसक्ति का त्याग करने की है। अगर एक साधु किसी गाँव या नगर में अधिक निवास करता है, परन्तु वह सावधान रहकर आसक्ति, मोह या ममत्व से दूर रहता है, मोहवर्द्धक सांसारिक बातों से, रागात्मकवृत्ति से दूर रहता है, गृहस्थ द्वारा दिये गये प्रलोभनों, सुख-सुविधाओं आदि में नहीं फँसता तो वह वहाँ गृहस्थों से परिचय करके या अमुक क्षेत्र में चिर-निवास करके भी अलिप्त एवं अनासक्त रह सकता है । परन्तु यदि कोई साधक सुख-सुविधा या किसी सामग्री या अमुक स्वार्थ के वशीभूत होकर जानबूझ कर गृहीजनों का अत्यधिक सम्पर्क करता है, एक क्षेत्र में अकारण ही वर्षों तक जमकर रहता है, गृहस्थों को आकर्षित करके अपने उचित-अनुचित काम निकलवाने के लिए अधिकाधिक सम्पर्क करता है तो वह साधक चाहे जितना विद्वान् हो, क्रियाकाण्डी हो, उच्च पदाधिकारी हो, या प्रसिद्ध वक्ता हो, पतन से तथा कर्मबन्धन से बच नहीं सकता। प्राचीनकाल के साधक प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा से कोसों दूर रहते थे।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस तो काली माता की मूर्ति के समक्ष बैठकर प्रार्थना करते थे-'माँ ! मुझे इस प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा से बचा। लोग मुझे इतना सम्मान क्यों देते हैं ?'
पर आज का साधक प्रायः येन-केन-प्रकारेण प्रसिद्धि पाने की धून में रहता है। संस्कृत के एक कवि की यह उक्ति ऐसे लोगों की मनोवृत्ति पर करारा व्यंग करती है
घटं भित्वा, पटं छित्वा, कृत्वा गर्दभवाहनम् ।
येन केन प्रकारेण, नरः सम्मानमाप्नुयात् ।। 'घड़ा फोड़कर, कपड़ा फाड़कर, या गधे पर सवारी करके भी जिस किसी भी प्रकार से यश मिले, मान-सम्मान मिले प्राप्त कर लो।'
उनके द्वारा अधिकाधिक जन-सम्पर्क के बारे में बाहरी नारा धर्म प्रचार या जन-कल्याण का रहता है, परन्तु उनके हृदय को टटोला जाय तो कुछ और ही बात निकलेगी। अतः साधक के समक्ष सदैव आत्मसाधना का लक्ष्य रहे, प्रतिक्षण वह अपनी मनोवृत्ति पर पहरेदारी रखे, अपने वचन का