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अमरदीप
दूसरों से अपनी सस्ती प्रशंसा सुनूँ । यदि साधक में मुहमीठी बात कहने की आदत हो गई तो वह गृहस्थ को सही मार्गदर्शन नहीं दे सकेगा, न ही वह उसकी गलती बताकर सुधार सकेगा । गृहस्थ को मुँहमीठी बात कहने वाले सन्त प्रिय लगेंगे। पर यों करने से साधक और गृहस्थ दोनों ही पतन के गड्ढे में गिरेंगे |
बन्धनबद्ध साधक : श्रमणजीवन से अतिदूर
गृहस्थों के स्नेहबन्धन में बंधा हुआ साधक श्रमणजीवन से कितनी दूर जा पहुंचता है ? इसके विषय में अर्हतषि वारत्तक कहते हैंजो लक्खण सुमिण पहेलियाउ अवखाई याइ य कुतूहलाओ । तहाँ दणाहं परे पउञ्जए सामण्णरस महंतर खु से || ४ || जे चेलकरवणयसु वा वि आवाह-विवाह वधू-वरेसु । ts जु झंसु य पत्थिवाणं, सामण्णस्स महदंतर खु से ||५|| जे जीवाण हेतु पूयण ठा, किचि लोकसुहं पउजे । सिपाहि से, सामण्णस्स महदंतर खुसे || ६ || अर्था - जो साधक कुतूहलवश लक्षण और स्वप्न का फलाफल बतलाता है, पहेलियाँ बोलता ( बूझता ) है; तथा जो मनुष्य ( साधक) उसके लिए दानादि का प्रयोग करता है, वह श्रामण्यभाव से बहुत दूर है | ४||
जो साधक (गृहस्थ-पुत्र के ) चूड़ोपनयन आदि संस्कारों में, तथा वर-वधू के आवाह-विवाह प्रसंग में सम्मिलित होता है और राजाओं के साथ युद्ध में भी जुड़ जाता है; किन्तु जो साधक इन सब सावद्य कार्यों को करता कराता है, या अनुमोदन देता है उसमें और श्रमण भाव में बहुत बड़ा अन्तर है ||५||
जो जीवन ( जीने) के लिए, पूजन के लिए और इस लोक के किचित् सुख के लिए तिकड़मबाजी का प्रयोग करता है, अर्था वह अपनी बहुमूल्य साधना को इन तुच्छ वस्तुओं के लिए बेच देता है । उसकी यह बालचेष्टा हैं। वह अपनी साधना के सिक्के को इन भौतिक और क्षणिक चीजों में भुना लेता है । सचमुच उसकी यह चेष्टा वैसी है, जैसी कि मुर्दे की अर्थी की प्रदक्षिणा करना । इस प्रकार के कार्यकलाप में और श्रमणत्व में बहुत ही अन्तर है, अथवा श्रमणत्व से वह साधक बहुत दूर ( अन्तर पर ) है ॥६॥
इन तीन गाथाओं में अर्हतर्षि ने स्पष्ट कर दिया है कि गृहस्थों के अतिपरिचय एवं संसर्ग के कारण साधक के श्रमणत्व में कहाँ कहाँ और कैसे-कैसे दरारें पड़ जाती हैं ?