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निःसंगता की साधना के सूत्र.
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जब साधक गृहस्थों से स्नेहबद्ध हो जाता है तो मोहवश वह उन्हें लक्षण-विद्या बतलाता है, कभी वह स्वप्नफल बताता है और कभी नाना प्रकार की पहेलियाँ बुझाता है । अपना प्रभाव बढ़ाने एवं लोगों को आकर्षित करने के लिए ये और ऐसे कुतूहल, आश्चर्य और मोह एवं स्नेहबन्धन बढ़ाकर घोर पापकर्म बाँधता है।
__ गृहस्थ के साथ स्नेहबन्धन में बंधा साधक पतन की किस सीमा तक पहुंच जाता है, इसका चित्र इस पाँचवीं गाथा में दिया गया है। गृहस्थ के आँगन में जब बालक के चूडोपनयन-संस्कार का प्रसंग आता है, या फिर विवाह या किसी मांगलिक प्रसंग पर अन्धभक्ति से प्रेरित गृहस्थ साधु को उनमें सम्मिलित होने और आशीर्वाद देने के लिए प्रार्थना करता है, और स्नेह से बंधा हुआ साधक वहाँ पहुंच जाता है । यदि किसी राजा के साथ है तो वह अपने अहिंसा-महाव्रत को ताक में रखकर युद्ध के मैदान में भी उस राजा की सहायता के लिए पहुंच जाता है। किन्तु यह श्रमण जीवन में प्रबल बाधक बातें हैं, जो साधक को अत्यन्त निम्नस्तर पर ला देती हैं।
साधक के समक्ष सदैव त्याग, तप और संयम का उच्च आदर्श रहना चाहिए, पूजा, यशकीति, प्रतिष्ठा और सुख-सुविधा की कामना, किसी वस्तु की स्पृहा, अर्थलालसा, प्रसिद्धि की पिपासा आदि साधना को दूषित करने वाली चीजें हैं। ये साधक को अपने आदर्श से नीचे गिरा देती हैं। उसका जीवन तप-त्याग से शून्य खोखला बन जाता है। यदि पूजा प्रतिष्ठा और तात्कालिक सुख की ओट में वह आत्मसाधना को ताक में रख देता है, मंत्र तंत्रादि का प्रयोग करता है और स्वार्थ-लोलुप गृहस्थ उसके इस पतन में सहायक बनकर अपनी स्वार्थ सिद्धि करना चाहता है तो ऐसा करने वाला साधक अपने यथार्थ आदर्श से बहुत दूर रहकर बीच में ही अटक जाता है। उसके सारे कार्य कलाप भौतिक विषयों को केन्द्र बनाकर उसी के चारों ओर घूमते हैं। जैसे मुद्दे की अर्थी के चारों ओर प्रदक्षिणा से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, वैसे ही भौतिक विषयों के चारों ओर प्रदक्षिणा से कुछ भी आध्यात्मिक प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
समस्त संगों से दूर रहकर आत्मलक्ष्य में स्थिर रहो अन्त में अहंतर्षि आत्मार्थी साधकों को लक्ष्य करके समस्त संगों से दूर रहकर एकमात्र आत्मलक्ष्य में स्थिर रहने का उपदेश देते हैं ।