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११६ अमरदीप
feat वलंबसुहिक्का, सद्धा मेढो य णिच्चला । भावणा उवती तस्स, इरियादारं सुसंवुड ॥१३॥ कसाया मलणं तस्स, कित्तिवातो य तक्खमा । णिज्जरा तुल वामीसा, इति दुक्खाण जिक्खति || १४ || एतं किसि किसित्ताणं सव्व सत्त दयावहं । माहणे खत्तिए वेस्से सुद्दे वा पि विसुज्झति ॥ १५ ॥
अर्थात् - ( इस आध्यात्मिक खेती का ) क्षेत्र बीज है, तथा संयम रूप हल ( दो हल) से युक्त है । फलक (फाल) है, तथा संवररूप दृढ़ बीज हैं ॥ ८ ॥
(खेत) आत्मा है, तप ध्यान रूपी तेज धार
मायाशीलों में अमायी होकर रहना तथा नियमतः विनय में स्थित होकर तितिक्षा करना ही ( खेती की ) हलोसा है । दया और गुप्ति ही उसकी ग्रह (रस्सी) है ||
( उस खेती के लिए) सम्यक्त्व का गोच्छणव (खाद ) है, और समिति शमिला (समोल ) है । बैल को जोतने के लिए धृतिरूपी जोत (डोरी) है. जो सुसम्बद्ध है और सर्वज्ञ के वचनों में अनुरक्त है ॥१०॥
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क्षान्त, दान्त और इन्द्रियविजेता ब्राह्मणों के लिए उसकी पांचों इन्द्रियाँ ही उसके बैल (वृषभ) हैं, जिनसे वह गंभीर दिव्य खेती करता है ॥११॥
तप ही उस खेती का अवन्ध्य । निष्फल न जाने वाला) बीज है और दूसरे के हितों का हनन न करने वाला अहिंसामय व्यवसाय ( आचरण या व्यवहार) ही उसका धन ( फसल ) है | अहिंसा की साधना में जुते हुए (लगे हुए) दो बैल ही उसका 'संग्रह' है ॥ १२ ॥
अवलम्बन के लिए हिक्का के समान धृति (धैर्य) है । निश्चल श्रद्धा मेढ़ी है। भावनाओं से ईर्ष्यापथ का द्वार भी सुसंवृत है ॥ १३
॥ कषायों का मर्दन ही उसके धान्य का मर्दन है | क्षमा ही उसका कीर्तिवाद है । निर्जरा ही फसल का काटना है । इस प्रकार की दिव्य खेती से साधक दुःखों से मुक्त होता है || १४ ||
समस्त प्राणियों पर दया का झरना बहाते हुए जो इस प्रकार की आध्यात्मिक खेती करता है, वह ब्राह्मण (माहन) हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शूद्र हो, तो भी वह विशुद्ध होता है ||१५||
इस अध्ययन की अन्तिम सात गाथाओं में अर्हतषि मातंग ने ब्राह्मण (मान) के लिए आध्यात्मिक खेती का सुन्दर रूपक देते हुए साधक की स्थिति और उसके साधनों का निर्देश किया है।