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११८ अमरदीप
लिए सम्यक्त्वरूप खाद की आवश्यकता है, जो कि आध्यात्मिक शान्तिका मूल है । सम्यक्त्व आत्मा की शुद्ध परिणति का नाम है, इस शुद्ध परिणति को प्राप्त किये हुए, प्राप्त करने वाले एवं प्राप्ति का माध्यम क्रमशः देव, गुरु और धर्म है, जिन पर श्रद्धा रखना अथवा तत्त्वभूत पदार्थों पर श्रद्धानविश्वास भी सम्यक्त्व है ।
ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और परिष्ठापनरूप पंचविध समिति ही शमिला है, यानी बैलों के कन्धों पर रखने वाले जुए ( युग) की है । समिति का अर्थ है योगों की शुभ प्रवृत्ति । यह समिति रूपी कील धृतिरूपी रस्सी से सुसम्बद्ध है । जो वीतराग वचनों में अनुरक्त है, वही साधक श्रेष्ठ खेती कर सकता है ।
पार्थिव खेती में दो बैलों की तरह इस दिव्य खेती के भी दो बैल हैं-क्षान्ति और इन्द्रियजय । क्षान्ति और विजितेन्द्रियता से, चाहे कितने आँधीतूफान आएँ, साधक खेती में लगा रहता है, उससे भागता नहीं । साधक की अहिंसा ही इस खेती की फसल है । किन्तु फसल कट जाने के बाद, उसे खलिहान में लाया जाता है। पहले हिक्के ( लकड़ी के लट्ठों) से कूटकर धान्य के छिलके को अलग किया जाता है, फिर खलिहान के बीच में एक खम्भ (मेढ़ी) गाड़ा जाता है; जिसके चारों ओर बैल चलते हैं वे दांय करते और अनाज से उसका भुस्सा दूर होता जाता है । इस आध्यात्मिक कृषि की हिक्का साधक की धृति है । स्तम्भरूप मेढ़ी साधक की निश्चल श्रद्धा है, जिससे अध्यात्माकाश में ऊँची उड़ान भरी जा सकती है । भावनाएँ ही उसकी फसल से छिलके को दूर करती है, नये आस्रवरूपी कचरे आदि को आने नहीं देतीं। वे ही ईर्यापथ का द्वार संवृत कर देती — ढँक देती हैं । खलिहान में पड़े अनाज से छिलका पृथक् करने के लिए उनका मर्दन किया जाता है, अध्यात्म खेती में आत्मा से कर्म के छिलके पृथक् करने से लिए कषायों का मर्दन अपेक्षित है। निर्जरा ही फसल की कटाई है । अनाज को उपजने के लिए क्षमा रूपी हवा (कीर्तिवाद) की आवश्यकता । इस प्रकार की आध्यात्मिक खेती करने वाला सर्वभूतदयापरायण साधक चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शूद्र हो, समस्त दुःखों का तथा जन्ममरणरूप संसार एवं गर्भवास का अन्त करता है ।
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