________________
२
राग-द्वेषरहित होकर समभावपूर्वक भोगना चाहिए । यही समाधि है । और समाधिस्थ साधक ही विभावदशा - प्रवृत्त आत्मशक्ति को रोकता है और सकाम निर्जरा करके कर्म परम्परा को तोड़ता है । यही कम्परम्परा को समाप्त करने का सर्वोत्तम उपाय है ।
संसार के सभी जीव नित्य भी अनित्य भी
बन्धुओ !
पहले यह कहा गया था कि संसार अनित्य है । संसार में जो जड़ पदार्थ हैं, वे अनित्य हैं, किन्तु आत्मा नित्य है; यह निश्चयदृष्टि अर्थात् द्रव्यास्तिकदृष्टि से ठीक है । किन्तु व्यवहारदृष्टि अर्थात् पर्यायार्थिक दृष्टि से आत्मा कर्मों से बद्ध होने के कारण विभिन्न गतियों और योनियों में परिभ्रमण करता है, इस कारण अनित्य भी है। अर्हतर्षि इसी तथ्य को उजागर करते हुए कहते हैं
दव्वओ खेत्तओ चेव, कालओ भावओ तहा ।
निच्चानिच्चं तु विष्णाय संसारे सध्वदेहिणं । ३६ ।।
'संसार में समस्त देहधारी जीवों को द्रव्य, क्ष ेत्र, काल और भाव सें नित्य और अनित्य रूप से जानना चाहिए ।'
जैन दर्शन प्रत्येक वस्तु का दो दृष्टियों से निरूपण करता है - द्रव्यार्थिकनय - दृष्टि और पर्यायार्थिकनय - दृष्टि । द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से प्रत्येक वस्तु एक, अविभाज्य और नित्य है । द्रव्यार्थिकनय पदार्थ को अनुत्पन्न और अविनष्ट मानता है । जबकि पर्यायार्थिक नय की दृष्टि में शाश्वतता नाम की कोई वस्तु नहीं है । वह मानता है कि पदार्थ प्रतिक्षण उत्पन्न और विनष्ट होता
के
। अतः समस्त देहधारी आत्माएँ भी द्रव्य, क्ष ेत्र, काल और भाव- पर्याय अनुरूप परिवर्तनगामी हैं, किन्तु द्रव्यरूप से शाश्वत भी हैं । अतः साधक को चाहिए कि वह आत्मा को एकान्तनित्य मानने के भ्रम में न रहे, अपितु वर्तमान में उसे संसार की अनित्यता से व्याप्त समझकर उस अनित्यता को शीघ्र ही दूर करके सिद्धों के समान नित्य और अचल बनाने का प्रयत्न करे ।
ant for अचल उत्तम स्थान को प्राप्त करते हैं
इस अध्याय की अन्तिम गाथा में अर्हतर्षि इसी तथ्य की ओर इशारा कर रहे हैं